-दीपक रंजन दास
पशुओं के प्रति होने वाली क्रूरता के खिलाफ देश-दुनिया में एक विशाल संगठन खड़ा हो गया है. यह संस्था इतनी विशाल और प्रभावशाली है कि आज सभी फिल्मों और वृत्तचित्रों के आरंभ में यह घोषणा करनी पड़ती है कि फिल्म के निर्माण के दौरान पशुओं के साथ कोई क्रूरता नहीं की गई. सिल्वर स्क्रीन से लेकर ओटीटी तक इस निर्देश का पालन भी खूब किया जाता है. काश! ऐसी कोई घोषणा देश के नौनिहालों के लिए भी की जा सकती. क्रूरता का मतलब हमने बड़ा मोटा-मोटा निकाल रखा है. बच्चों को पीटा नहीं जाना चाहिए. उन्हें फेल नहीं किया जाना चाहिए. डांट-डपट और सजा की बजाय उनकी काउंसलिंग की जानी चाहिए. रही सजा की बात, तो सिस्टम ने इसका प्रबंध अलग से कर रखा है. इसमें बच्चे तो प्रताड़ित होते ही हैं, उनके माता-पिता भी खून का घूंट पीकर रह जाते हैं. स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की ओर से राष्ट्रीय शालेय खेलकूद प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है. देश भर के बच्चे ट्रेनों के द्वारा सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर प्रतियोगिता स्थल तक पहुंच रहे हैं. आज की तारीख में ट्रेनों की हालत किसी से छिपी नहीं है. पहले एसी का मतलब होता था लक्जरी. पर जब से स्लीपर क्लास को कैटल-क्लास (मवेशी दर्जा) घोषित किया गया है, लोग थर्ड एसी से भी कतराने लगे हैं. अब मारामारी सेकण्ड एसी के लिए है. ट्रेनों में रिजर्वेशन हासिल कर पाना शेरनी का दूध ढूंढ लाने जैसा काम हो चला है. चलो मान लेते हैं कि फेडरेशन का जोर ट्रेनों पर नहीं चलता. उसके हाथ बंधे हुए हैं पर जिन बच्चों को चुनकर इन खेलों के लिए आमंत्रित किया गया है, उनके ठहरने-खाने का प्रबंध तो अच्छा किया ही जा सकता है. यदि फेडरेशन इतना भी नहीं कर सकता तो उसे मान लेना चाहिए कि वह बस्ती का दूल्हा है जिसके पास सुविधा हो या न हो, वह पूरी बस्ती को दावत देना चाहता है. शालेय राष्ट्रीय खेलकूद प्रतियोगिता के लिए दिल्ली गए छत्तीसगढ़ के खिलाड़ियों को भारी अव्यवस्था का सामना करना पड़ा. दिल्ली पहुंचे तो पता चला कि उनके लिए भोजन की व्यवस्था ही ऊलजलूल किस्म की है. काफी देर तक तो इसी पर बवाल होता रहा कि कूपन मिलेंगे या खरीदने पड़ेंगे. कूपन की व्यवस्था होने तक बच्चे भूख-प्यास से बिलबिलाते रहे. अगर पशुओं के साथ ऐसी क्रूरता की गई होती तो खबर बन जाती. एफआईआर तक दर्ज हो जाता. पर ये इंसानों के बच्चे हैं. हमने इन्हें योद्धा मान लिया है जो हर तरह की चुनौती का सामना करने के बाद मेडल जीतकर लाएंगे. जैसे-तैसे प्रतियोगिता निपटी तो लौटने की बारी आई. रिजर्वेशन का प्रबंध नहीं था. बच्चे फर्श पर, टायलेट में और दरवाजे के पास बैठकर घर लौटे. एक तरह से उनका भारत दर्शन हो गया. अब उन्हें पता है कि देश की आधी से अधिक आबादी क्या-क्या एडजस्ट करके चलती है.