-दीपक रंजन दास
दुनिया भर के आदिवासियों को सुरक्षित और संरक्षित करने की बातें आती हैं। इसके समानान्तर उन्हें विकास की मुख्यधारा से जोडऩे की भी बातें होती हैं। ये दोनों मत एक दूसरे के धुर विरोधी हैं। पहला जहां चाहता है कि आदिवासी तीर धनुष लिये अधनंगा जंगलों में घूमता फिरता रहे। वहीं दूसरा मत चाहता है कि वहां भी स्कूल, कालेज और अस्पताल खुलें। लोग शिक्षित हों और समाज की मुख्य धारा में शामिल हो जाए। छत्तीसगढ़ का बस्तर संभाग भी इसी उधेड़बुन को जी रहा है। यहां का आदिवासी जीवन तमाम विविधताओं और रंगों के साथ पूरी दुनिया के आकर्षण का केन्द्र रहा है। आदिवासी जनजीवन में परिवर्तन की पहली दस्तक 1958 से शुरू होती है। केन्द्र सरकार ने 12 सितंबर 1958 को एक प्रस्ताव पारित कर पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से आने वाले शरणार्थियों को मध्यप्रदेश के बस्तर और उड़ीसा के मलकानगिरी में बसाने के लिए ‘दंडकारण्य परियोजनाÓ प्रारंभ की थी। 31 अक्टूबर 1979 तक बस्तर के इस इलाके में 18,458 शरणार्थियों को बसाया गया। 2011 की जनगणना के अनुसार यहां की कुल 1।71 लाख आबादी में से एक लाख लोग बांग्ला बोलते हैं। वहीं पखांजूर की 95 फीसदी आबादी पूर्व शरणार्थियों की है। इन शरणार्थियों की दो पीढिय़ां गुजर चुकी हैं। दशकों के सह अस्तित्व ने आदिवासियों और शरणार्थियों के बीच के अनेक अंतरों को मिटा दिया। इनके बीच वैवाहिक संबंध तक हुए। खान-पान में समानताएं आईं। लोककला और लोकशिल्प भी प्रभावित हुआ। 1950 के दशक में बस्तर राजपरिवार ने ही यहां प्रथम चर्च के लिए जमीन दान की थी। ईसाई मिशनरियां इससे भी पहले से यहां सक्रिय थीं। ईसाई मिशनरियों का काम करने का अपना तरीका है। वे लोगों के बीच जाते हैं, उनकी मदद करते हैं और लोगों को चर्च आने के लिए प्रेरित करते हैं। इसमें हिंसा नहीं है। लोगों को मदद मिलती है, वे प्रभावित होते हैं और चर्च जाना शुरू कर देते हैं। आदिवासियों की चर्च पर निर्भरता और ईसाई धर्म के प्रति झुकाव को सीमित करने 1952 में वनवासी कल्याण आश्रम की स्थापना जशपुर में की गई। 1970 के दशक तक इसकी गतिविधियां बस्तर तक पहुंच गईं। 1985 में नारायणपुर में रामकृष्ण मिशन आश्रम की स्थापना की गई। यहां अस्पताल, स्कूल, आईटीआई का संचालन प्रारंभ हो गया। पर न तो वनवासी कल्याण आश्रम और न ही रामकृष्ण मिशन के लोगों की कभी किसी ईसाई मिशनरी से कोई झड़प हुई। सब अपना-अपना काम करते रहे। पिछले साल जनवरी में छत्तीसगढ़ की भूपेश सरकार ने राम वन गमन परिपथ विकास योजना की घोषणा की। बस्तर संभाग के कई स्थलों को इसमें शामिल किया गया। देवगुडिय़ों का निर्माण प्रारंभ हुआ और पहुंचने लगे हिन्दू साधु संत। इसके बाद से ही यहां बवाल मचा हुआ है। हिंसक घटनाएं हो रही हैं। पेनगुड़ी-देवगुड़ी विवाद खड़े किये जा रहे हैं। देवी-देवताओं को खतरे में बताया जा रहा है। इसके लिए जिम्मेदार ताकतों को पहचानना जरूरी है।
Gustakhi Maaf: बस्तर के वनांचल को किसने लगाई आग?
