-दीपक रंजन दास
अंग्रेजी सीखने को लेकर आम भारतीय जितना सतर्क और सचेष्ट है, उतना वह हिन्दी को लेकर नहीं है. अंग्रेजी सीखने के लिए न केवल लोग निजी अंग्रेजी माध्यम स्कूलों की भारी-भरकम फीस भरते हैं बल्कि इसके बाद भी ट्यूशन और कोचिंग जाते हैं. फर्राटे से अंग्रेजी बोलना सीखने के लिए स्पोकन इंग्लिश की क्लास जाते हैं तो विदेश जाने से पहले आईईएलटीएस की परीक्षा दिलाते हैं. पर ऐसी कोई कोशिश हिन्दी को सुधारने या संवारने की नहीं दिखाई देती. उल्टे हर कोई अंग्रेजी सीखकर हिन्दी को छोड़ने के लिए उतावला हुआ पड़ा है. जैसे चार पैसे आते ही लोग बस्ती छोड़कर कालोनी में शिफ्ट हो जाते हैं उसी तरह अंग्रेजी सीखते ही लोग हिन्दी से किनारा कर जाते हैं. मिडिल क्लास में अंग्रेजी का क्रेज सबसे ज्यादा है. यहां पपाया को पपीता कहने पर बच्चों की कुटाई होती है. वह मिल्क पीता है, पॉट्टी करता है. उसे मोबाइल और टीवी पर केवल अंग्रेजी के कार्टून शो और एनिमेशन देखने की इजाजत होती है. बच्चा तो बच्चा, मिडिल क्लास घर का कुत्ता भी अंग्रेजी ही सीखता है. हिन्दी को आज भी कोई राष्ट्रभाषा कहता है तो कोई राजभाषा. महात्मा गांधी ने 1917 में हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहा था. पर जब देश का संविधान बना तो इसे राजभाषा का दर्जा दिया गया. हिन्दी आज भी राजभाषा ही है. राजभाषा से तात्पर्य उस भाषा से है जिसका उपयोग शासन करता है. राष्ट्रभाषा का अर्थ एक राष्ट्र में सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा से है. भाषा का एक और वर्गीकरण है – मातृभाषा. यह वह भाषा है जो किसी व्यक्ति द्वारा घर या परिवार में बोली जाती हो. हिन्दी को राष्ट्रभाषा कहने वालों का तर्क है कि हिन्दी देश के सभी भागों में बोली जाने वाली भाषा है. देश के किसी भी कोने में चले जाएं वहां हिन्दी बोलने समझने वाला कोई न कोई मिल ही जाता है. यही बात अंग्रेजी के लिए भी कही जा सकती है. वैसे संगीत ने इन दिनों पंजाबी को भी खूब लोकप्रिय कर रखा है. इंग्लिश जहां संपर्क, संचार और अध्ययन/शोध की जरूरत है, वहीं पंजाबी और भोजपुरी मनोरंजन की भाषा है. अब तो स्कूली शिक्षा मातृभाषा में देने की सहमति बनती दिखाई दे रही है. तो फिर हिन्दी कहां है? हिन्दी बंदी है मुट्ठी भर लोगों की हथेली में जो उसकी समृद्धि का रास्ता रोके खड़े हैं. भाषा प्रचलित शब्दों को आत्मसात कर समृद्ध होती है. पर ये होशियार अब हिन्दी से बीन-बीन कर उर्दू के शब्दों को अलग कर रहे हैं. अंग्रेजी के शब्दों के हिन्दी पर्यायवाची बनाने की फूहड़ कोशिशें भी ये करते रहे हैं पर लोगों ने उसे कभी स्वीकार नहीं किया. पर जिस हिन्दी को हम जानते हैं वह तो आजाद पंछी है. वह हिन्दी फिल्मों, कवि सम्मेलनों, रेडियो, प्रिंट और डिजिटल मीडिया के जरिए देश-देशांतर तक फैली हुई है. ये वाली हिन्दी बढ़ती रही है और बढ़ती रहेगी.
Gustakhi Maaf: आजाद पंछी है मेरी वाली हिन्दी
