-दीपक रंजन दास
सदियों की गुलामी के बाद आजाद हुए भारत ने समावेशी विकास का रास्ता चुना. समाज के जो वर्ग विकास की दौड़ में सबसे पीछे रह गए थे, उन्हें आगे बढ़ाने के लिए समयबद्ध आरक्षण की व्यवस्था की गई. कालांतर में यही आरक्षण व्यवस्था गले का फांस बन गई. आरक्षण का उपयोग वोट बैंक की तरह होने लगा. आरक्षण प्रतिशत बढ़ते-बढ़ते हास्यास्पद होने की हद तक पहुंच गया. छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो यहां आरक्षण का कुल प्रतिशत 82 फीसदी तक पहुंच गया था. आलम यह है कि आरक्षण अब किसी वर्ग को पिछड़ा से अगड़ा नहीं बनाती. यह केवल सरकारों को बनाती बिगाड़ती है. 75 साल से इन वर्गों को मुख्य धारा में लाने के प्रयास किये जा रहे हैं और हालत यह है कि इलाज के साथ ही मर्ज बढ़ता चला गया. मतलब साफ है कि आरक्षण ने लोगों को पिछड़़े से अगड़ा नहीं बनाया बल्कि अगड़ा से पिछड़़ा बना दिया. जिन लोगों ने देश में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की थी, वे प्रतिस्पर्धा कर आगे आये थे. उन्होंने पुरुषार्थ से अपनी काबीलियत को इतना बढ़ा लिया था कि अगड़े भी उनके आगे पानी भरते थे. छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत प्रमोद जोगी का ही उदाहरण ले लें तो उन्होंने कभी आरक्षण का लाभ नहीं लिया. अपने बलबूते पर वे यूपीएससी जैसी कठिन परीक्षा में सफल हुए. जिन्होंने अपने दम पर मुकाम बनाया, उनके पास कोई सुविधा नहीं थी. संविधान निर्माता डॉ भीमराव अम्बेडकर ने भी कठिन परिस्थितयों में अपना मुकाम बनाया था. उन्हें लगा था कि पिछड़ों को सुविधाएं दी जाएं तो वो भी राष्ट्र के निर्माण में सहभागी हो सकते हैं. राष्ट्रीय उत्पादकता में उनका भी बड़ा योगदान हो सकता है. पर आरक्षण पर ऐसी राजनीति शुरू हुई कि इसका मंशा ही पलट गई. नौकरी में आरक्षण का ऐसा चस्का लगा कि लोगों ने मेहनत करना ही छोड़ दिया. शिक्षण-प्रशिक्षण में मिली सुविधाओं का लाभ उठाकर जिन विद्यार्थियों को 50 प्रतिशत प्राप्तांक से उठकर 75 प्रतिशत तक पहुंचना था वे 40-45 पर आकर ठिठक गए. नौकरी और पदोन्नति में आरक्षण की सुविधा ने उनकी कार्यक्षमता को ग्रहण लगा दिया. आज छत्तीसगढ़ की सड़कों पर आदिवासियों का प्रदर्शन चल रहा है. वे राजमार्ग और रेलमार्ग रोक रहे हैं. किसके लिए? आखिर सरकारी नौकरियां हैं ही कितनी? कितने लोगों को आरक्षण का लाभ मिल पाएगा? आज छत्तीसगढ़ शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में नवाचार कर रहा है. बड़ी संख्या में उत्कृष्ट विद्यालय और सरकारी अस्पताल खोले जा रहे हैं. यदि ये स्कूल और अस्पताल भी आरक्षण की भेंट चढ़ गए तो विकास का क्या होगा? क्या आदिवासी समाज, अनुसूचित जाति/जनजाति समाज या पिछड़ा वर्ग को यह मंजूर होगा कि उनके बच्चों के लिए खुले स्कूलों में 33 प्रतिशत वाले शिक्षकों की भर्ती हो? सरकारी अस्पतालों में नाकाबिल डाक्टर हों? सुनहरे कल के लिए कुछ कुर्बानियां भी देनी पड़ती हैं. स्मरण रहे, तीन पीढिय़ों ने अपनी कुर्बानियां दी थीं तब जाकर देश आजाद हुआ था.
गुस्ताखी माफ: आरक्षण बनाम अराजकता




