-दीपक रंजन दास
आधुनिक नेतागिरी का अस्सी फीसद काम छवि का होता है. चुनाव में टिकट मिलने या कोई पद मिलने पर नेता सबसे पहले किसी स्टूडियो में जाता है या फिर फोटोग्राफर को घर बुला लेता है. पूरे गेटअप में हर उस ऐंगल से अपनी फोटो खिंचवाता है जिसमें वह प्रभावशाली दिखता हो. कभी हाथ जोडता है तो कभी उंगली उठाकर “वी” बनाता है. ये फोटो अखबार में, हैण्डआउट में, फ्लायर में और होर्डिंग पर उसकी “फेस-वैल्यू” बढ़ाते हैं. उसे मंच की भी दरकार होती है जहां से वह अपने ‘मन की बात’ कह सके. बोलने का मौका न भी मिले पर फोटो में तो आता ही है. पर हमेशा संभव नहीं हो पाता. जब मंच पर सीट की गुंजाइश न हो तो लोग फ्लेक्स-बैनर से काम चला लेते हैं. पर इसमें से भी फोटो गायब हो जाए तो? अगर सरकारी अमला यह गलती कर दे तो नाराज होना तो बनता ही है. मनेन्द्रगढ़ की नगर पालिका अध्यक्ष नाराज होकर जमीन पर बैठ गईं. उन्हें मंच पर जगह नहीं मिल पाई थी. तहसीलदार हाथ जोड़कर उन्हें मनाते रहे. अंबिकापुर में भी ऐसा ही हुआ. पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष और प्रदेश महामंत्री के लिए मंच पर बैठने की व्यवस्था नहीं की गई थी. दोनों भड़क गए और तहसीलदार को हाथ जोड़कर उनकी चिरौरी विनती करनी पड़ी. राजनीतिक दलों के ये फूफाजी माहौल में रस घोलते हैं. फूफाजी का यही काम भी है. फूफाजी होते तो घराती हैं पर उनके नखरे बाराती वाले होते हैं. बात-बात पर रूठ जाना और तब तक मुंह फुलाए रहना, जब तक कि कोई उन्हें अच्छे से मना न ले, उसकी आदत होती है. पर फूफाजी भी नए पुराने होते हैं. नए फूफाजी के रूठने पर तो मनाने के लिए भतीजियों की फौज भी आ जाती है पर पुराने फूफाजी के फूले हुए मुंह को देखने की फुर्सत किसी को नहीं होती. ऐसे फूफाजी कार्यक्रम छोड़कर चले जाते हैं और किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ता. पर सब इतने शालीन नहीं होते. कुछ लोगों को अपनी बेइज्जती का हिसाब हाथ-के-हाथ करना होता है. वे कुछ न कुछ ऐसा करते हैं जिससे सबका ध्यान उनकी तरफ जाए. वे मौके की नजाकत को नहीं समझते. भई सरकार आपकी है, कार्यक्रम आपका है. इसमें विघ्न डालकर आप क्या साबित करना चाहते हैं. वैसे भी मंच पर बैठकर आप करते भी क्या? अपने आसपास बैठे लोगों से इतनी बातें करते कि मंच पर बैठे अतिथि विरक्त हो जाते. कुछ लोगों को मंच पर बैठे लोगों से ही सौ काम होते हैं. वे लगातार मंच पर आते जाते रहते हैं. कभी किसी के चरण स्पर्श करते हैं तो कभी किसी के कान में फुसफुसाते हैं. मंच की यही अव्यवस्था मंचस्थ लोगों को भाषण नहीं सुनने देती. लोग सबकुछ भूल जाते हैं. सभा को संबोधित करते समय भी पीछे मूड़कर आयोजन और आयोजकों का नाम तक उन्हें पढ़कर बोलना पड़ता है. अच्छा हो मंच पर दो या तीन कुर्सियां ही लगाई जाएं.