-दीपक रंजन दास
देश ने हाल ही में राजभाषा सप्ताह मनाया. हिन्दी पर कई कार्यक्रम हिन्दी में हुए. कुछ में अंग्रेजी का भी तड़का लगा रहा. कुछ लोगों ने इस अवसर पर अपना दु:ख साझा किया. इन्हें हिन्दी में उर्दू शब्दों के उपयोग पर आपत्ति थी. हालांकि उन्होंने हिन्दी का उपयोग बढ़ाने, हिन्दी में तकनीकी ग्रंथों का सृजन करने की भी बातें की. दरअसल, यही विडम्बना है जो उच्च शिक्षा को कुएं का मेंढक बनाए रखने पर तुला है. हम किताबों से बाहर जाना ही नहीं चाहते. सरकार लाख चीखती रहे कि डिब्बे से बाहर आकर सोचो, थिंक आउट ऑफ द बॉक्स करो, पर ये मानते ही नहीं. मानें भी कैसे? बचपन से लेकर आज तक स्कूल-कालेज में यही तो सीखा है. स्कूल-कालेज में जितना और जैसा लिखवाया गया है, परीक्षा में उतना और वैसे ही लिखना है. इधर-उधर हुए तो माक्र्स कट जाएंगे. इसलिए हिन्दी दिवस भी औपचारिक समारोह बन कर रह गया है. लोग मानने को ही तैयार नहीं कि भाषा और सभ्यता दोनों डायनामिक होते हैं. इनका निरंतर विकास होता है. पहले जब उर्दू सरकारी जुबान थी तो ब्रजभाषा के साथ-साथ उर्दू का भी भरपूर उपयोग हिन्दी में होता था. लोग प्रेमचंद जैसे साहित्यकारों को पढ़ते रहे हैं, और पढ़ते रहेंगे. मुंशी प्रेमचंद ने उर्दू का बाखूबी इस्तेमाल किया और हिन्दी को समृद्ध किया. ऐसे रचनाकारों को सहज स्वीकार्यता मिली. लोग इनकी पुस्तकों को खरीदकर भी पढ़ते रहे. आज उर्दू का स्थान अंग्रेजी ने ले लिया है तो अंग्रेजी के शब्द भी हिन्दी में शामिल होने लगे हैं. पर कुछ लोग हिन्दी को पालने से बाहर निकालना ही नहीं चाहते. मजे की बात यह है कि ऐसे लोगों का लिखा हुआ भी या तो सिर्फ साहित्यिक गोष्ठी में पढ़ा जाता है या फिर स्कूल कालेज की लाइब्रेरी में जबरदस्ती रखवाया जाता है. अब लोगों को कैसे समझाएं कि उर्दू और हिन्दी की अपनी-अपनी उपयोगिता है. आज धन्यवाद की जगह थैंक-यू का चलन ज्यादा है. कोई-कोई शुक्रिया भी कहता है, अच्छा लगता है. पर कार्यक्रम के अंत में अब भी धन्यवाद ज्ञापन ही होता है. अर्थ के अलावा प्रत्येक शब्द का एक भाव भी होता है. अब जब हमारा शब्द भंडार कई भाषाओं के मेल से समृद्ध हो चुका है तो उसे वापस पालने में लौटाने की जरूरत ही क्या है? क्या किसी बालक को हमेशा के लिए पालने में कैद किया जा सकता है? वह कुछ दिन पालने में रहेगा, फिर बाहर भी निकलेगा. पहले अपने माता-पिता से कुछ शब्द सीखेगा. फिर परिवार के अन्य सदस्यों के साथ कुछ और शब्द सीखेगा. मोहल्ले में निकलने लगेगा तो पड़ोसी की भाषा-बोली भी सीखेगा. स्कूल-कालेज में शब्द ज्ञान को विस्तार मिलेगा. फिर आजीविका जहां भी ले जाए, वहां की भाषा और बोली भी सीखेगा. फिर पेशेवर भाषा को अपनायेगा. पंडित बनेगा तो संस्कृत बोलेगा, पुलिस बनेगा तो गालियां भी बकेगा. इसे रोका नहीं जा सकता. “उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम”. चित्त को उदार करें तो पूरी दुनिया के लोग, सभी भाषाएं अपनी सी लगने लगेंगी.