-दीपक रंजन दास
सड़कें यदि सरकार बना रही है तो टोलटैक्स किस बात का? या तो सरकार हाईवे बनाने का श्रेय लेना बंद करे या फिर उसे जनता के लिए फ्री करे। दोनों बातें साथ-साथ नहीं हो सकतीं। रायपुर-नागपुर हाईवे पर स्थित दुर्ग टोल-प्लाजा में कांग्रेसियों ने उत्पात मचाया। टोल कर्मियों के साथ उनकी झूमा-झटकी भी हुई। कांग्रेसियों ने धरना दिया और इसके बाद बात बढ़ी तो टोल प्लाजा में तोडफ़ोड़ करने के साथ ही वहां लगे कैमरे भी तोड़ दिये। दरअसल, कांग्रेसी स्थानीय वाहनों से टोल टैक्स वसूले जाने का विरोध कर रहे थे जबकि टोल कर्मी कहते रहे कि वो अपना काम कर रहे हैं। टोल कर्मी अपनी जगह बिल्कुल सही हैं। कांग्रेसियों की मांग भी अपनी जगह ठीक है। दरअसल, वह दौर बीत चुका जब सड़कें राजा या सरकारें बनवाती थीं और प्रजा उनका उपयोग करती थी। सड़कों को सम्पर्क का साधन माना जाता था। यह विकास की बुनियाद थी। आवाजाही की सुगमता व्यापार और वाणिज्य के लिए तो जरूरी है ही पर इसका एक पहलू और भी है। जिनकी याददाश्त कमजोर हो चुकी है उन्हें याद दिला दें कि 90 के दशक में भारत ने आर्थिक वैश्वीकरण की तरफ कदम बढ़ाए। इसके साथ ही दुनिया की सभी बड़ी कंपनियों ने भारत बाजार का रुख कर लिया। तब भी भारत 120 करोड़ से अधिक आबादी वाला देश था। 1995 में सड़कों, विशेषकर राष्ट्रीय राजमार्गों के उन्नयन के लिए बीओटी (BOT) मॉडल को अपनाया गया। इसका मतलब था- निजी कंपनियां सड़कें बनाएंगी, उन्हें ऑपरेट कर अपने पैसे वसूलेगी और फिर उसे सरकार को आगे के रखरखाव के लिए हस्तांतरित कर देगी। इन खास सड़कों की जरूरत इसलिए भी थी ताकि लोग बड़ी लक्जरी गाडिय़ां खरीद सकें और इन सड़कों पर दौड़ा सकें। हमें इस रफ्तार की वैसे तो कोई जरूरत थी ही नहीं। जिस देश में ट्रेनें अपनी ही पटरियों पर दौड़कर 24-36 घंटे लेट हो जाती हैं और लोग उसे बर्दाश्त कर लेते हैं वहां वक्त की ऐसी भी कोई मारा-मारी नहीं थी। जैसी कि हमारी संस्कृति है, वक्त की हमारे पास कोई कमी नहीं है। हम दिन भर प्रवचन पंडालों में बैठे रह सकते हैं। घंटों नदियों की आरती कर सकते हैं। काम धंधा छोड़कर नेताओं को सुनने के लिए भीड़ लगा सकते हैं। वैश्वीकरण के दौर में कुछ लोगों के पास अनाप-शनाप पैसा आ गया। निजी बैंकों ने गाडिय़ों की खरीद फरोख्त को आसान बना दिया। लोग अपना शौक पूरा करने लगे। पार्किंग स्पेस एक नई समस्या बनकर उभरी। सड़क चौड़ी करने के लिए कहीं पेड़ कट रहे हैं तो कहीं तोडफ़ोड़ हो रही है। यह समस्या बाजारवाद की देन है। 70 के दशक में एंबेसेडर अधिकारियों की और फिएट डाक्टरों की गाड़ी हुआ करती थी। अब रेत चोर भी एसयूवी और एक्सयूवी में घूम रहे हैं। सड़कें बनाने का श्रेय लेकर सरकारें बन-बिगड़ रही हैं। इसके गणित को समझ लिया तो विवाद स्वत: समाप्त हो जाएगा।