-दीपक रंजन दास
“झूठ बोले कौआ काटे, काले कौवे से डरियो”, काश यह गाना आम आदमी गा पाता. बचपन में उसे मारपीट कर सिखाया गया था कि झूठ नहीं बोलना चाहिए. आज भी लाइफ स्टाइल कोच कहते हैं कि झूठ बोलने पर स्ट्रेस होता है, एक झूठ पर पर्दा डालने के लिए सौ झूठ बोलने पड़ते हैं और झूठ फिर भी पकड़ा जाता है. पर यही झूठ किसी-किसी पेशे का सबसे बड़ा हथियार होता है. झूठ बोलने की क्लास लगती हैं. झूठ बोलने से पहले स्वयं उस पर यकीन कर लें तो झूठ बोलते समय गजब का कांफिडेंस आ जाता है. लोग आप पर यकीन कर लेते हैं. सड़क किनारे फुटपाथ पर सांडे का तेल बेचने वाले का कांफिडेंस देखा है? यही सबकुछ हुआ राज्य में चुनाव की तैयारी कर रही भाजपा के साथ. पूर्व मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह और भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष अरुण साव ने भूपेश सरकार पर आरोप लगाया कि उसने सोनिया गांधी के इशारे पर छत्तीसगढ़ में राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू किया है. उसे पता है कि ईसाई मिशनरियों को लेकर जनमानस बंटा हुआ है. कांग्रेस की पूर्व अध्यक्ष सोनिया गांधी को लेकर भी लगभग यही स्थिति है. इसलिए आरोप लगाना आसान था. पर वह भूल गई थी कि जब एक उंगली किसी पर उठाते हो तो तीन उंगलियां स्वयमेव आप की तरफ उठती हैं. भूपेश सरकार की तरफ से इस वक्तव्य का कड़ा विरोध किया गया. सरकार ने तीन नहीं बल्कि नौ उंगलियां भाजपा की तरफ मोड़ दीं. डॉ रमन सिंह की पिछली सरकार ने राज्य में नौ बार रासुका लगाने का नोटिफिकेशन जारी किया था. ये सभी नोटिफिकेशन 2013 से 2018 के बीच रमन सिंह सरकार ने जारी किये थे. कांग्रेस ने पूछा है कि क्या रासुका राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इशारे पर लगाया गया था? साथ ही उसने नसीहत दी है कि यह केन्द्रीय कानून है जिसे केन्द्र चाहे तो खत्म कर दे. वैसे भी उतावली भाजपा रिस्क ले रही है. दंगे, चाहे वह किसी भी सूरत में हों, स्वीकार नहीं किये जा सकते. हम यह भी जानते हैं कि दंगे स्वयमेव नहीं भड़कते बल्कि भड़काए जाते हैं. दंगा मानवता का सबसे बड़ा दुश्मन है. वैसे भी आदिवासी इलाकों में धर्मांतरण का मुद्दा उछाला ही इसलिए जाता है कि आदिवासियों की समस्याओं का हमारे पास कोई हल नहीं. आदिवासी गांवों की समस्या उनकी भूख, गरीबी और नाउम्मीदी है. इन समस्याओं के खिलाफ हम उनके साथ खड़े नहीं हो पाए, यह हमारी कमजोरी है. गरीबी ईमान-धर्म भुला देती है. आदिवासी का विश्वास हिला तो ईसाई मिशनरियों ने उनकी तरफ हाथ बढ़ा दिया. उन्हें सहारा दिया, उनके साथ खड़े हो गए. लोगों ने प्रार्थना सभा जाना शुरू कर दिया. इसे इस तरह समझा जा सकता है कि हम सभी आयुर्वेद के फैन हैं. हमें घरेलू इलाज और हर्बल का चस्का भी है. पर ये सभी सुख के साथी हैं. जब कष्ट बढ़ता है तो हम अंग्रेजी दवा वाले अस्पतालों की तरफ भी हमीं भागते हैं.
Gustakhi Maaf: चुनावी मौसम और झूठ का समन्दर
