-दीपक रंजन दास
आज राष्ट्रीय माता-पिता दिवस है। ‘पेरेन्ट्स’ एक ऐसा शब्द है जिसका हिन्दी में कोई पर्यायवाची नहीं है। हमें माता और पिता दोनों शब्दों का उपयोग करना पड़ता है। ऑनलाइन शब्दकोश से पूछें तो फटाक से अभिभावक बता देता है, पर यह पूरी तरह सही नहीं है। अभिभावक को अंग्रेजी में गार्जियन कहते हैं। अभिभावक माता-पिता हो सकते हैं पर ये जरूरी नहीं है। अभिभावक कोई भी हो सकता है जिसे यह जिम्मेदारी सौंपी गई हो। बहरहाल बात चल रही थी, माता-पिता दिवस की। 1994 में अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने यह महसूस किया कि बच्चे अपने माता-पिता से कटते जा रहे हैं। इसलिए उन्होंने जुलाई माह के चौथे रविवार को ‘पेरेन्ट्स डे;’ मनाने की अपील लोगों से की। जल्द ही यह दिवस पूरी दुनिया में मनाया जाने लगा। इस दिन बच्चे के जीवन में माता-पिता की भूमिका, उनके नि:स्वार्थ प्रेम, तपस्या और समर्पण की सराहना की जाती है। यह संदेश देने का भी प्रयास किया जाता है कि जिस तरह उन्होंने अपनी संतान का ख्याल रखा, उसी तरह बच्चे भी तब उनका ख्याल रखें जब वे वृद्ध और अशक्त हो जाएं। अमेरिका के लिए यह एक नई बात भले ही हो, भारत के लिए यह सनातन परम्परा है। भारतीय परिवार बोध पश्चिम को हमेशा आकर्षित करता आया है। यह परिवार का समर्थन ही था जिसके चलते सदियों तक भारत ने कभी अनाथाश्रम या वृद्धाश्रम की जरूरत महसूस नहीं की। माता-पिता को खोने के बाद बच्चे चाचा, मामा या बुआ के यहां पल जाते थे। वृद्धों के पास अपना परिवार होता था, नाती-पोता से खेलते उनका बुढ़ापा गुजरता था। पर आधुनिक काल में एकल परिवारों का चलन बढ़ा है। गांव के बुजुर्ग कुछ वक्त आपस में बातें करके भी गुजारते थे। प्रत्येक गांव में इसके लिए चौपाल की व्यवस्था होती थी। अच्छा करियर की चाह बच्चों को महानगरों की तरफ लेकर जा रहा है। छोटे शहरों में उनके माता-पिता अपने बनाए जेल में कैद पड़े हैं। बेशक, परिवार को साथ लेकर चलने वालों की सफलता ज्यादा ऊंचाइयों को नहीं छू पाती पर उनके जीवन में संतोष ज्यादा होता है। उनका जीवन कहीं अधिक परिपूर्ण होता है। पर वक्त तेजी से बदल रहा है। अब अपने इलाज और अपने बुढ़ापे का इंतजाम करते दो-तीन पीढिय़ां निकल चुकी हैं। अकेले भिलाई जैसे शहर में ही आधा दर्जन वृद्धाश्रम खुल चुके हैं। ऐसे में ‘नेशनल पेरेन्ट्स डे’ भारत के लिए प्रासंगिक हो चला है। वैसे संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक जून को ग्लोबल पेरेन्ट्स डे घोषित किया हुआ है। दोनों दिवसों का आशय एक ही है- बुजुर्गों को अकेला मत छोड़ो। एक समय था अमेरिका उत्साही युवाओं का, उद्यमियों का देश था। सभी केवल काम के बारे में सोचते थे। देश ने खूब तरक्की की। पर अब वहां भी बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है। अभी भारत युवाओं का देश है पर 20-25 साल में यह भी बूढ़ों का देश हो जाएगा। क्या हम तब के लिए तैयार हैं?
गुस्ताखी माफ: नेशनल पेरेन्ट्स डे
