-दीपक रंजन दास
भाजपा के एक पूर्व मंत्री ने कांग्रेस के मौजूदा मंत्री को ‘आइटम गर्ल’ कह दिया। ऐसे नेताओं से इससे ज्यादा की उम्मीद भी नहीं की जानी चाहिए। इनकी कुल जमा राजनीतिक विरासत ही बतौला-बाजी है। पिछले दस सालों से यह पार्टी कुछ मरे हुए और कुछ जिन्दा लोगों पर लांछन लगाकर सत्ता सुख भोग रही है। पंद्रह साल छत्तीसगढ़ पर राज करने के बाद जनता ने इन्हें ऐसी पटखनी दी की छठी का दूध याद आ गया। अब खिसियानी बिल्ली खंभा नोच रही है। जीवन की तरह राजनीति भी एक रंगमंच है। यहां लोग अलग-अलग किरदारों को जीते हैं। कोई अमिताभ बच्चन बन जाता है तो कई अमरीश पुरी। हकीकत से इसका कोई लेना देना नहीं होता। भाजपा के पूर्व मंत्री की छवि एक पढ़े लिखे समझदार व्यक्ति की बना दी गई, तो जनता ने मान लिया। पर इस छवि के नीचे एक बेहद घटिया सोच का इंसान छिपा है, इसका पता तब चला जब उनके मुंह से ओछी बात निकल गई। एक तरफ उनकी पार्टी बाम्हन-बनिया के अपने इमेज को तोडऩे की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। कभी वह पिछड़़ा वर्ग के आदमी को प्रधानमंत्री बना देती है तो कभी दलित को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाती है। नेता जी और कुछ नहीं तो अपनी पार्टी की इस कोशिश का ही मान रख लेते। उन्होंने एक सीधे-सरल आदिवासी को आइटम गर्ल कह दिया। यह नेता आदिवासी समुदाय से आता है। उसे अपनी लोकपरंपराओं पर शर्म नहीं आती। वह जैसा है, वैसा ही दिखाई देता है। वह शादी की पार्टी में जाकर नाचता-गाता है। आदिवासी अपने कठिन जीवन से खुशियों के पल चुराने के लिए ऐसा ही करते हैं। उन्हें नहीं पता होता कि कल की सुबह उनके जीवन में आएगी या नहीं। दिन भर पेट भरने की जद्दोजहद के बाद वे नाच-गाकर खुशियां मनाते हैं और फिर नींद के आगोश में समा जाते हैं। सुबह आंख खुली तो एक और दिन और नहीं खुली तो कोई बात ही नहीं। जितनी जिन्दगी लिखी थी, हंसते गाते गुजार दी। इस संस्कृति को समझने के लिए इंसान का संवेदनशील होना जरूरी है। यह पार्टी और उसके जमूरे एक और बात भूल रहे हैं। भारत अब वह सनातन भारत नहीं रहा। मदारियों और जमूरों के दिन लदने लगे हैं। लोग भीड़ लगाकर इनका खेला तो देखते हैं पर फैसला अपने विवेक से करते हैं। इनसे न तो वो गंडा-ताबीज खरीदते हैं और न ही सांडे का तेल। सांप-संपेरों के साथ वे सेल्फी लेते हैं पर झांपी में सिक्का डालना भूल जाते हैं। प्रवचन करने वाले बाबाजी भी अब सोशल मीडिया पर रील्स बनाने के लिए मजबूर हो गए हैं। बिना स्पांसर के उनकी बड़ी-बड़ी बातें भी अब कोई नहीं सुनता। नेता जी आदिवासियों की बातों को सीरियसली नहीं लेते, तो फिर आदिवासी राष्ट्रपति का ढोंग क्यों? पार्टी को बताना चाहिए।
गुस्ताखी माफ: राजनीति के दलदल में सभी भांड और आइटम गर्ल
