भिलाई (श्रीकंचनपथ एक्सक्लूसिव)। चुनाव नतीजों में कई तरह की गड़बडिय़ों के आरोप लगाते हुए भाजपा सांसद विजय बघेल समेत कई नेताओं ने शुक्रवार को कलेक्टोरेट में धरना दिया। बाद में भाजपा के इन नेताओं ने अफसरों को लपेटने की भी कोशिश की और सत्ता की शह पर नतीजे बदलने जैसे गम्भीर आरोप लगाए। भाजपा के भीतर प्रत्यशी चयन से लेकर नतीजों तक के बीच बहुत सारी ऐसी बातें हैं, जिन पर चर्चा की जा सकती है। जो लोग अभी आरोप लगा रहे हैं, उन्होंने अपने-अपने समर्थकों को प्रत्याशी बनाने के लिए ऐडी-चोटी एक कर दी थी। जिन वार्डों में जीतने योग्य महज 1 दावेदार का नाम आया था, वहां इन नेताओं ने अपने-अपने समर्थकों के नाम जुड़वाकर न केवल विवाद की स्थितियां पैदा की, अपितु हार की पटकथा भी लिख दी। अब नतीजे आने के बाद हालात खिसियानी बिल्ली खम्बा नोचे जैसे है। भाजपा नगरीय निकाय के नतीजों को स्वीकार नहीं कर पा रही है, जबकि इन नतीजों के लिए उसके नेता और उनकी नाजायज जिद जिम्मेदार रही। पार्टी के नेताओं ने यदि अब भी सबक नहीं लिया तो इसका साफ असर मिशन 2023 की उसकी तैयारियों पर पड़ेगा।
दिसम्बर के पहले दिन से ही प्रत्याशी चयन की कवायद शबाब पर थी। लगातार बैठकें चल रही थी। टिकट के दावेदार अपने-अपने आकाओं के दरबार में आवेदन पहुंचा रहे थे। लोकसभा व राज्यसभा के सांसद विजय बघेल व सरोज पाण्डेय से लेकर पूर्व मंत्री प्रेमप्रकाश पाण्डेय व विधायक विद्यारतन भसीन के साथ ही संगठन नेताओं के घर, दावेदारों से गुलजार थे। इसका पूरा-पूरा और स्पष्ट प्रभाव प्रत्याशी चयन के लिए होने वाली बैठकों में देखने को मिला। भाजपा ने अपने स्तर पर सर्वे करवाया था और उस सर्वे की रिपोर्ट को सामने रखकर एक-एक वार्ड में नाम तय किए जाने थे। लेकिन भाजपा के तमाम स्थानीय दिग्गज चाहते थे कि उनके गुट के या उनके समर्थक व्यक्ति को टिकट मिल जाए। इसके चलते पार्टी का सर्वे हाशिए पर चला गया और इन नेताओं ने अपने-अपने समर्थकों के नामों को पैनलाइज कर दिया। जबकि पार्टी की स्पष्ट हिदायत थी कि एक-एक नाम ही तय करके भेजना है। यदि पार्टी के नेता उस वक्त गुटबाजी को त्यागकर दावेदारों की सूची छोटी कर पाते तो शायद नतीजे कुछ और होते।

कह सकते हैं कि कम से कम दुर्ग जिले में तो भाजपा की हार की कहानी यहीं से शुरू हुई। इन बैठकों में राज्यसभा सांसद सरोज पाण्डेय खुद शामिल नहीं हुईं, किन्तु उनके प्रदेश कार्यसमिति सदस्य भाई राकेश पाण्डेय व जिला भाजपा के अध्यक्ष वीरेन्द्र साहू समेत कई अन्य समर्थक जरूर मौजूद रहे। वार्डों में दावेदारों की संख्या ज्यादा होने से कार्यकर्ताओं के मनोबल पर सीधा असर हुआ। रही-सही कसर प्रत्याशी की घोषणा के बाद पूरी हो गई। जाहिर है कि एक व्यक्ति को टिकट मिलने से अन्य दावेदार तो नाराज हुए ही, गलत प्रत्याशी चयन से वार्डों में कैडर भी घर में बैठ गया। ऐसे लोगों को न मनाने की कवायद हुई, न उनमें उत्साह पैदा करने की कोशिश की। यहां तक कि पार्टी के नेताओं ने उनसे यह अपेक्षा तक नहीं की कि वे पार्टी के लिए काम करें। लड़-भिड़कर, जिद करके अपने समर्थक को टिकट तो दिया दी गई, लेकिन उसकी जीत के लिए कोई प्रयास नहीं हुआ। खासतौर पर जिला संगठन अंत तक शून्य पर बना रहा। कई वार्डों में तो हालात यह थे कि पार्टी प्रत्याशी के पास प्रचार के लिए कार्यकर्ताओं का टोटा हो गया। इन प्रत्याशियों को भाड़े के प्रचारक जुगाडऩे पड़े। लेकिन फिर भी पार्टी के नेताओं ने सबक नहीं लिया। विपक्ष में होने की वजह से पहले ही संसाधनों का अभाव था। अनुशासन उसी वक्त टूट गया था जब बागियों ने ताल ठोंक दी। कई वार्डों में भाजपा के लोगों ने निर्दलीयों को समर्थन देकर अपनी पार्टी की हार तय की। सवाल यह है कि क्या पार्टी अब उन नेताओं की जिम्मेदारी तय करेगी, जिनके प्रत्याशियों की हार हुई है?

भाजपा के स्थानीय नेता इस बात पर संतुष्टी जाहिर कर रहे हैं कि भिलाई, चरोदा और रिसाली जैसे हालात पूरे प्रदेश में रहे। मतलब कि दुर्ग जिले में हुई पराजय कोई अप्रत्याशित घटना नहीं थी, बल्कि पूरे प्रदेश में पार्टी की हार हुई है। शायद यही वजह है कि बहुत आसानी के साथ हार का ठिकरा सत्तारूढ़ दल और अफसरशाही पर पर फोड़ दिया गया। लेकिन तीन नगर निगमों की पराजयों के बीच जामुल पालिका के नतीजों का आंकलन भी भाजपाइयों को करना चाहिए। भले ही जामुल में भाजपा स्पष्ट बहुमत से एक सीट कम रह गई, लेकिन वहां उसका अध्यक्ष बनना तय हो गया है। क्या सत्तारूढ़ दल के लिए वहां गड़बडिय़ों की गुंजाइश कम थी? क्या पीएचई मंत्री गुरू रूद्रकुमार का यह निर्वाचन क्षेत्र पार्टी के लिए मायने नहीं रखता था?