दुर्ग में पीसीसी की बैठक के कई मायने, कांग्रेस में पिछड़ा वर्ग से तैयार हुआ नया गुट
दुर्ग। अगली 10 तारीख को प्रदेश कांग्रेस की एक महत्वपूर्ण बैठक दुर्ग में होने जा रही है। इस बैठक को स्थानीय निकाय चुनाव से जोड़कर देखा जा रहा है, किन्तु स्थानीय चुनाव के लिए प्रदेशभर के नेताओं को सकेलना राजनीतिक नजरिए से सही प्रतीत नहीं होता। ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि जिस बैठक में राष्ट्रीय स्तर के और प्रदेशभर के नेता जुटेंगे, वह क्या महज नगर निगम चुनाव के लिए ही रखी गई है या फिर इसके पीछे कोई और वजह भी है? दुर्ग में पिछले दो वर्षों के राजनीतिक घटनाक्रमों को देखें तो इससे कई तरह के संकेत मिल रहे हैं। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद शहर में एक नया सशक्त गुट तैयार हुआ है। मुख्यमंत्री के करीब रहने वाले इस गुट के नेता के जरिए कहीं नया नेतृत्व उभारने की तैयारी तो नहीं है?
रविवार को प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष मोहन मरकाम दुर्ग पहुंचे तो गुटीय समीकरणों का कुछ ताना-बाना देखने को मिला। विधायक अरूण वोरा और उनके समर्थकों के अलावा प्रदेश कांग्रेस के महामंत्री राजेन्द्र साहू, आरएन वर्मा, प्रोफेशनल कांग्रेस के अध्यक्ष क्षितिज चंद्राकर, मुकेश चंद्राकर आदि की मौजूदगी अहम् रही। क्योंकि पीसीसी का यह आयोजन दुर्ग शहर विधानसभा क्षेत्र में होने जा रहा है, इसलिए सारे कयास दुर्ग को लेकर ही शुरू हुए। दुर्ग विधानसभा सीट कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है और कतिपय अपवादों को छोड़ दें तो यहां आजादी के बाद से अब तक ज्यादातर बार कांग्रेस को ही जीत मिली। महत्वपूर्ण बात यह है कि इस सीट पर बहुत लम्बे समय से वोरा परिवार का कब्जा है। इसी सीट से चुनाव जीतकर वरिष्ठ नेता (स्व.) मोतीलाल वोरा अविभाजित मध्यप्रदेश में मंत्री, फिर मुख्यमंत्री बने। दुर्ग शहर उनकी कर्मस्थली रहा। यहीं से उन्होंने केन्द्रीय राजनीति की सीढिय़ां उत्तरोत्तर चढ़ीं। आगे चलकर उन्हें यूपी जैसे बड़े राज्य का राज्यपाल भी बनाया गया। वे संगठन के विभिन्न पदों पर भी रहे। लम्बे समय तक वे राज्यसभा में भी प्रतिनिधित्व करते रहे। लब्बोलुआब यह कि जब तक वे दुर्ग में रहे कांग्रेस का परचम लहराते रहे। उनके दिल्ली की राजनीति में सक्रिय होने के बाद उनके पुत्र अरूण वोरा विगत 30 वर्षों से दुर्ग का प्रतिनिधित्व करते रहे हैं।

इस दौरान कई ऐसे अवसर भी आए जब दुर्ग में वोरा परिवार के अलावा अन्य किसी को टिकट देने की आवाजें उठीं, किन्तु क्योंकि मोतीलाल वोरा दिल्ली में कमान संभाले होते थे, इसलिए अरूण वोरा की टिकट कटने जैसी स्थितियां कभी नहीं रही। उन हालातों में भी नहीं, जबकि वे लगातार तीन बार चुनाव हारे। कई तरह की कमेटियों की टिकट की अनुशंसाओं को दरकिनार कर अरूण वोरा को टिकट मिलती रही। लेकिन इस बार हालात कुछ बदले-बदले से हैं। मोतीलाल वोरा के स्वर्गवास के बाद वोरा परिवार की राजनीतिक विरासत पर कई नेताओं की नजर है। इसमें कई तो पिछड़ा वर्ग से हैं तो कुछेक सामान्य वर्ग से भी हैं। छत्तीसगढ़ में सरकार बनने के बाद कांग्रेस ने ही पिछड़ा वर्ग की राजनीति को आगे बढ़ाया है। छत्तीसगढ़ राज्य बना तो पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने आदिवासी राजनीति का बिगूल फूंका। उनके बाद डॉ. रमन सिंह मुख्यमंत्री बने तो सिंह लॉबी (सामान्य वर्ग) का बोलबाला रहा। फिलहाल खुद मुख्यमंत्री भूपेश बघेल पिछड़ा वर्ग के सबसे बड़े नेता है। दुर्ग का इलाका पिछड़ा वर्ग बाहुल्य माना जाता है। ऐसे में यदि पार्टी के ही भीतर पिछड़ा वर्ग से नेतृत्व उभारने की आवाजें उठें तो उसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

पार्षद को दी थी औकात में रहने की धमकी
नगर निगम की सामान्य सभा के दौरान विधायक वोरा ने भाजपा पार्षद दिनेश देवांगन को औकात में रहने की धमकी दी थी। इसे लेकर पिछड़ा वर्ग के नेताओं ने न केवल नाराजगी जाहिर की थी, बल्कि लामबंदी भी शुरू कर दी थी। हालांकि यह मामला ठंडा पड़ गया, किन्तु ऐसा ही एक वाकया भाजपा नेत्री सरोज पाण्डेय के साथ भी हुआ था। उन्होंने साहू समाज के एक नेता को थप्पड़ मार दिया था, जिसके बाद हुए संसदीय चुनाव में लामबंद साहुओं ने एकतरफा मतदान कर सुश्री पाण्डेय को पराजय का मुहाना दिखाया।
तैयार है वोरा परिवार की अगली पीढ़ी
पहले मोतीलाल वोरा और उनके पश्चात उनके पुत्र अरूण वोरा का दुर्ग शहर की राजनीति में दबदबा रहा है। अब वोरा परिवार की तीसरी पीढ़ी भी राजनीति में पदार्पण कर चुकी है। विधायक व कार्पोरेशन अध्यक्ष अरूण वोरा के दोनों पुत्र राजनीति में सक्रिय हैं। ऐसे में कांग्रेस के ही भीतर यह सवाल उठ रहे हैं कि क्या अरूण वोरा की राजनीतिक विरासत उनके पुत्र संभालेंगे? दरअसल, दुर्ग शहर में कांग्रेस का एक वर्ग लम्बे समय से कसमसा रहा है। दुर्ग में पिछड़ा वर्ग की राजनीति शुरू होने के साथ ही यहां इस वर्ग को नया अवसर दिख रहा है।