दुर्ग। आने वाले दिनों में प्रदेश भाजपा संगठन में बड़े बदलाव देखने को मिल सकते हैं। दिल्ली से आ रही खबरों पर यकीन करें तो शीर्ष नेतृत्व ने माना है कि अलग-अलग चुनाव में मतदाताओं का मन ‘स्थिर नहीं रह पाता। जिसके चलते लोकसभा और विधानसभा चुनाव के नतीजों में अर्श और फर्श का फर्क आता है। इस खाई को पाटने के लिए ही भाजपा देशभर में सत्ता और संगठन में परिवर्तन कर रही है। छत्तीसगढ़ में क्योंकि भाजपा सत्ता में नहीं है, इसलिए यहां संगठनात्मक बदलाव होंगे। वर्तमान में राज्य की कमान आदिवासी नेता विष्णुदेव साय के हाथ में है। खबरों के मुताबिक, जल्द ही पिछड़ा वर्ग से नेतृत्व उभारने की तैयारी है।
लोकसभा चुनाव में मिली अभूतपूर्व जीत के बाद कई राज्यों के विधानसभा चुनावों में मिली पराजय भाजपा को साल रही है। पार्टी के रणनीतिकारों को लगता है कि पिछले कुछ सालों में ऐसे मतदाताओं का एक बड़ा वर्ग तैयार हुआ है जो लोकसभा चुनाव में तो मोदी के नाम पर वोट करता है, लेकिन विधानसभा चुनाव में स्थानीय नेतृत्व को सामने रखकर वोट देता है। इसी के मद्देनजर रणनीतिकारों ने स्थानीय परिस्थितियों पर ज्यादा फोकस किया है। जिस तरह से उत्तराखंड में दो बार नेतृत्व परिवर्तन किया गया, उसके बाद कर्नाटक और अब गुजरात में नेतृत्व बदला जा रहा है, यह उसी की कड़ी है। दिल्ली सूत्रों के मुताबिक, छत्तीसगढ, हरियाणा, झारखंड समेत कई अन्य राज्यों में लोकसभा के चुनाव में तो पार्टी को भारी जीत मिली, लेकिन विधानसभा चुनाव में नतीजे बदल गए। इसी वजह से पार्टी नेतृत्व ने अलग-अलग राज्यों की समीक्षा की और आवश्यकतानुसार नेतृत्व परिवर्तन की रणनीति बनाई। जानकारों के मुताबिक, गुजरात के बाद हरियाणा, त्रिपुरा और मध्यप्रदेश में भी भाजपा नेतृत्व परिवर्तन का नुस्खा आजमाएगी। जिन राज्यों में पार्टी सत्ता में नहीं है, वहां संगठन में बड़े बदलाव होंगे। इस दौरान जातिगत समीकरण और जनाधार वाले नेताओं को सामने लाया जाएगा।
हाल ही में बस्तर में चिंतन शिविर का आयोजन भी इसी कड़ी का एक हिस्सा था। राज्य में 15 सालों तक भाजपा सत्ता में रही। इस दौरान डॉ. रमन सिंह का कद बड़ी तेजी से बढ़ा। जिस तेजी से डॉ. रमन आगे बढ़े, उतनी ही तेजी से पार्टी के भीतर उनके विरोधी भी संगठित हुए। नतीजतन गाहे-बगाहे सत्ता का चेहरा बदलने की जुगत लगती रही। हालांकि इसका कोई नतीजा नहीं निकला। रमेश बैस, नंदकुमार साय जैसे कई प्रमुख चेहरों को किनारे लगा दिया गया। जबकि पिछड़ा और आदिवासी वर्ग से ये बड़े चेहरे थे। परिणाम यह निकला कि पिछड़ा और आदिवासी वर्ग के वोट भाजपा से छिटकते चले गए। कांग्रेस की सत्ता आने के बाद भाजपा के भीतर आदिवासी नेतृत्व के सामने लाने की लामबंदी हुई तो रमन विरोधियों ने पिछड़ा वर्ग का कार्ड खेला। हालांकि शीर्ष नेतृत्व ने अंत में पूर्व केन्द्रीयमंत्री विष्णुदेव साय को प्रदेश अध्यक्ष की कमान सौंपी। रमेश बैस के सक्रिय राजनीति से दूर हो जाने के चलते पिछड़ा वर्ग का बड़ा वोट-बैंक तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष व वर्तमान में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल अपने पक्ष में करने में सफल रहे।

स्थानीय नेतृत्व के भरोसे चुनाव
सूत्रों के मुताबिक, प्रदेश भाजपाध्यक्ष के रूप में विष्णुदेव साय के कामकाज से पार्टी आलाकमान संतुष्ट नहीं है। हालांकि 11 लोकसभा सीटों वाले छत्तीसगढ़ में भाजपा को 10 सीटें हासिल है। यह बात समझने में शीर्ष नेतृत्व को काफी वक्त लगा कि जब 2018 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को 90 में से महज 13 सीटें मिली तो लोकसभा चुनाव में लगभग सारी सीटें कैसे मिल गई? यही वजह है कि रणनीतिकारों को नए सिरे से विचार करना पड़ा है। दरअसल, रणनीतिकारों की सोच है कि सब कुछ मोदी लहर के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता। पार्टी में स्थानीय स्तर पर ऐसा नेतृत्व हो, जो अपने व अपने कामकाज के दम पर नतीजे निकाले। छत्तीसगढ़ में जातिवाद प्रारम्भ से ही हावी रहा है और कांग्रेस ने सदैव चेहरे चुनते वक्त इसका विशेष ध्यान रखा। अब भाजपाई व्यूह भी चेहरे और जनाधार को देखकर तैयार किया जा रहा है।
जनाधार और जाति प्राथमिकता
पार्टी सूत्रों का दावा है कि जल्द ही भाजपा जनाधार रखने वाले और जातिगत समीकरण में फिट बैठने वाले नेताओं को सामने लाने जा रही है। किन्तु सवाल यह है कि जब इस वर्ग के नेताओं को आगे आने का अवसर ही नहीं दिया गया तो जनाधार कहां से आएगा? जाति के आधार पर संगठन में नेतृत्व परिवर्तन की बात समझ में आती है, किन्तु पार्टी के रणनीतिकारों को सत्तारूढ़ दल के जातीय गणित को भी समझना होगा। जिस पिछड़ा वर्ग की अगुवाई अभी स्वयं मुख्यमंत्री भूपेश बघेल कर रहे हैं, उसका विकल्प भाजपा के लिए तलाशना बेहद दुष्कर होगा। बस्तर चिंतन से कुछ आदिवासी नेता खुश हो सकते हैं, किन्तु इसका सरगुजा पर भी असर होगा, यह कहना अतिशंयोक्ति होगी। सरगुजा में आदिवासी वोटों की कमान रामविचार नेताम जैसे कद्दावर नेता के पास है, जबकि बस्तर में नंदकुमार साय लम्बे समय बाद सक्रिय दिखे हैं। आने वाले दिनों में इन दोनों आदिवासी नेताओं के कंधों पर पार्टी का भार कुछ ज्यादा पड़ सकता है। यह भी हकीकत है कि कई राज्यों में सत्ता के चेहरे बदलना और राज्यों में संगठन में बदलाव करना अलग-अलग बातें हैं।
अगड़ा वर्ग रहा हावी
पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के शुरूआती कुछ साल छोड़ दें तो उसके बाद से अब तक भाजपाई राजनीति अगड़ा वर्ग के इर्द-गिर्द घूमती रही। 15 साल तक डॉ. रमन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रहे और इस दौरान उनकी एकतरफा चली। सत्ता से लेकर प्रशासनिक स्तर तक सिंह लॉबी के चर्चे रहे। यदा-कदा सरकार में आदिवासी वर्ग को महत्व दिया गया, लेकिन इस वर्ग से नया नेतृत्व उभरने की संभावनाओं को ही खत्म भी कर दिया गया। डॉ. रमन के सत्ता में आने के बाद पिछड़ा वर्ग की अगुवाई साहू समाज के पास थी और प्रदेश में ताराचंद साहू के रूप में एक बड़ा साहू चेहरा उसके पास था। वहीं कुर्मी समाज में रमेश बैस की तूती बोलती थी। इन दोनों की वजह से भाजपा को सफलता मिलती रही, किन्तु इसे सामाजिक एकजुटता की बजाए रमन सरकार की सफलता कहा जाता रहा। पार्टी के शीर्षस्थ नेता साहू-कर्मी को नियंत्रित करने में लगे रहे। ताराचंद साहू ने पार्टी से अलग होकर नया दल बना लिया तो रमेश बैस को ‘दिल्ली का नेता’ मानकर राज्य से बाहर कर दिया गया। इसी तरह कद्दावर आदिवासी नेताओं को भी किनारे लगा दिया गया। नतीजा यह हुआ कि न केवल बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी इलाकों से भाजपा पूरी तरह साफ हो गई, वरन् मैदानी इलाकों में, जहां पिछड़ा वर्ग का प्रभाव था, वहां भी पार्टी को बुरी पराजय का मुंह देखना पड़ा।




