-दीपक रंजन दास
ओडीशा और छत्तीसगढ़ की सरकारें पिछले 20 साल से जोरा नाला विवाद पर बातें कर रही हैं. इसके एक हिस्से में रेत और पत्थरों के जमाव के कारण इंद्रावती नदी सूख रही थी. इंद्रावती बचाओ संघर्ष समिति के नेतृत्व में तोकापाल, लोहंडीगुड़ा और बस्तर ब्लॉक के किसानों ने अंततः यह काम खुद ही कर लिया. बड़ी संख्या में किसान अपने साथ गैती, फावड़ा और सब्बल लेकर पहुंचे. स्वयं जोरा नाले में उतरे और इंद्रावती के पानी में रुकावट बन रहे रेत के टीलों और शिलाखण्डों को हटा दिया. इसके साथ ही दक्षिण छत्तीसगढ़ की जीवनरेखा इंद्रावती में एक बार फिर पानी पहुंचने लगा है. पुलिस और राजस्व विभाग के अधिकारी खड़े-खड़े तमाशा देखते रहे पर वे किसानों को रोकने का साहस नहीं जुटा पाए. अब राज्य के सिर पर यह खतरा मंडरा रहा है कि ओडीशा इस मामले को एक बार फिर केन्द्र के पास लेकर जा सकता है. अच्छी बात यह है कि दोनों ही राज्यों में अब भाजपा की सरकारें हैं. जब किसान रेत और अवरोध हटाने का यह काम कर रहे थे तब मौके पर उपस्थित सरकारी अधिकारियों ने कहा कि यह काम सरकार का है और उसे ही करना चाहिए. इस पर किसानों और इंद्रावती बचाओ संघर्ष समिति ने दो टूक कह दिया कि जब सरकार नहीं कर पाई तभी किसानों को करना पड़ रहा है. दरअसल, यह बदलते भारत की वह सुगबुगाहट है जिसे अब तक नजरअंदाज किया जाता रहा है. जीवन रूलबुक के हिसाब से नहीं चलता. कोई सड़क पर मर रहा हो तो आप यातायात पुलिस या हाइवे पेट्रोल का इंतजार नहीं कर सकते. यह उनका काम है. पर आप इसमें दखल देते हैं और घायल को अस्पताल पहुंचाने की कोशिश करते हैं. इस मामले में पूंछ को आग तो किसानों के लगी हुई थी. इसलिए बुझाने की जल्दी भी उन्हें ही थी. अफसर बैठकर केवल बातें ही बनाते रह जाते थे. जल समझौता 2003 में 50 फीसद पानी छत्तीसगढ़ को मिला था पर अवरोध के कारण सिर्फ 30 फीसद मिल रहा था. मामला व्यवस्था को अपने हाथ में लेने की है. जब सरकारी मशीनरी फेल हो जाती है तो जनता इसी तरह व्यवस्था को अपने हाथ में ले लेती है. जोरा नाले में जो हुआ, वह केन्द्र और राज्य सरकारों के लिए एक सबक है जिसे वो याद कर लें तो अच्छा रहेगा. लोक लुभावन नारों और धार्मिक मसलों पर लोगों को बहकाया तो जा सकता है पर उनकी दैनन्दिन समस्याओं को सुलझाया नहीं जा सकता. इन समस्याओं से स्थानीय लोगों का जीवन-मरण जुड़ा हुआ होता है. जब बात रोजी रोटी, खेत और परिवार पर आ जाती है तो लोग अंततः बेपरवाह हो ही जाते हैं. किसी भी सरकार के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात और क्या हो सकती है कि लोग उसका काम स्वयं ही करने लग जाएं. यह संवेदनाहीन अफसरशाही की भी पोल खोलती है.
