-दीपक रंजन दास
देश पिछले लगभग डेढ़ दशक से एक नई किस्म के बंटवारे का दंश झेल रहा है। यह बंटवारा देश की भौगोलिक सीमाओं पर न होकर घर-घर में हो रहा है। पहले बहस कट्टर हिन्दू होने और नहीं होने को लेकर थी। अब यह एक कदम और आगे चलकर सनातनी होने या नहीं होने तक जा पहुंची है। आम आदमी को न तो हिन्दू होने की परिभाषा ठीक-ठीक पता है और न ही सनातनी होने का मतलब उसकी समझ में आता है। जो कुछ सोशल मीडिया पर परोस दिया गया, वह उसी को सही समझ लेता है। सोशल मीडिया पर रायता फैलाने वालों को सिर-माथे पर बैठा लेता है और बवाल काटता है। इधर हिन्दुत्व की फसल कट चुकी, सनातनी होने की फसल भी जल्द ही कट जाएगी। इसके बाद कौन सा नया शिगूफा सामने आएगा, इसे सोचकर भी डर लगता है। जब भी सनातन की बातें होती हैं तो वर्ण व्यवस्था की भी बातें होती हैं। यह वही वर्ण व्यवस्था है जिसे शिथिल करने के लिए सिख पंथ की स्थापना हुई, बौद्ध समाज और ब्रह्म समाज जैसी विचारधाराओं का उदय हुआ। यह वही वर्ण व्यवस्था है जिसे तोडऩे के लिए देश के संविधान में सबको एक जैसे अधिकार दिये गये। बात वर्ण व्यवस्था पर ही खत्म हो जाती तब भी राहत की बात थी पर देश जानता है कि यह वर्ण व्यवस्था पर भी रुकने वाली नहीं है। प्रत्येक वर्ण में कुलीन वर्ग होता है। इसका कोई सटीक विलोम नहीं है बस इतना जानना काफी है कि कुलीन अकसर खानदानी होने की बातें किया करते हैं। इसी वर्ण के शेष लोग उनसे नीच होते हैं। ऊंच-नीच की ये बातें अब तक केवल वैवाहिक रिश्तों तक ही सीमित थीं पर अब ऐसी बात नहीं रही। अब जब दो लोग बैठकर किसी तीसरे की बात करते हैं तो उसके जात-कुल तक पहुंच जाते हैं। कोई कुलीन ब्राह्मण है तो कोई कुलीन कायस्थ। जब आगे और बंटवारा होगा तो इन्हें भी अलग-अलग होना पड़ेगा। क्या देश इसके लिए तैयार है? अगर पूरा देश सनातनी हो चला है तो पिछड़ा वर्ग का प्रधानमंत्री और आदिवासी राष्ट्रपति इनके बीच क्या कर रहा है? दरअसल, देश की इस मनोदशा को सोशल मीडिया के जरिए आकार दिया जा रहा है। इस मनोदशा और मानसिकता का मकसद केवल चुनाव जीतने के लिए वोट बैंक खड़ा करना है। इसके लिए एक पूरी टीम है जो ऐसे उदाहरण ढूंढ कर ले आती है जिसका उपयोग लोगों की भावनाओं को भड़काने के लिए किया जा सकता है। फिर उसका कूटनीतिक प्रयोग कर आम लोगों को भ्रमित किया जाता है। इसका शिकार होकर लोग अपने परिवारों में ही लडऩे-झगडऩे लगते हैं। अब तक तो यह केवल मतभेद है, आगे चलकर यदि यह मनभेद में बदल गया तो पूरा सामाजिक ताना-बाना ही ध्वस्त हो जाएगा। लोगों को यह समझना होगा कि सनातनी होने का मतलब पाषाण युग में लौट जाना नहीं है।