-दीपक रंजन दास
देश का सर्वोच्च न्यायालय स्कूली बच्चों से काम करवाए जाने के खिलाफ है। वहीं देश के प्रधानमंत्री कुछ साल पहले तक स्वच्छता आंदोलन चला रहे थे। प्रधानमंत्री स्वयं झाड़ू लेकर सड़क पर उतर आए थे। देश के प्रत्येक मोहल्ला कस्बे में लोग झाड़ू लेकर नालियों में उतर रहे थे। टोकरियों में कचरा ढो रहे थे। स्वच्छता को लेकर एक पागलपन सा सवार था। इस दौरान कचरा पेटियों पर लगे महात्मा गांधी के प्रतीक चश्मे को लेकर भी खूब बवाल मचा। पर वह दौर गुजर चुका। सफाई व्यवस्था एक बार फिर कचरा ठेकेदार के हवाले है। लोग कचरा बिखेरते रहेंगे और मु_ी भर लोग देश को स्वच्छ बनाने की कोशिश करते रहेंगे। अपने शहर भिलाई की ही बात करें तो नगर निगम यहां स्वच्छता पर सालाना 36 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करता है। प्रत्येक वार्ड में सफाई के लिए 30 सफाई कर्मी तैनात हैं। जोन-वार 50 सफाई कर्मियों का अतिरिक्त गैंग रखने का भी प्रावधान है। एक वार्ड की आबादी 18 से 20 हजार लोगों की होती है। यही वजह है कि सफाई कर्मी काम करें या न करें, गंदगी का ढेर जगह-जगह मुंह चिढ़ाता दिखाई दे जाता है। दरअसल, स्वच्छता का लक्ष्य इसे आदत में शामिल किए बिना हासिल किया ही नहीं जा सकता। 1970 के दशक तक स्कूलों में बच्चों द्वारा स्वच्छता के कार्य किये जाते रहे हैं। बीएसपी स्कूलों में भी एसयूपीडब्लू अर्थात सोशली यूसफुल प्रॉडक्टिव वर्क के पीरियड होते थे। हिन्दी में समझें तो यह सामाजिक रूप से उपयोगी उत्पादक कार्य हुआ करता था। इसके तहत स्कूली बच्चे न केवल अपने शाला परिसर की सफाई करते थे बल्कि पेड़ पौधे लगाना, उनकी देखभाल करना जैसी गतिविधियों का संचालन भी किया जाता था। इसके साथ ही काज-बटन, तुरपाई, ऊन बुनना, क्रोशिया आदि का भी प्रशिक्षण दिया जाता था। इसका सकारात्मक प्रभाव भी बच्चों पर पड़ता था। विकसित देशों में स्वच्छता प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी होती है। कचरा फैलाने वालों को जहां हेय दृष्टि से देखा जाता है वहीं कुछ देशों में ऐसा करने वालों पर कानूनी कार्रवाई भी होती है। यह सिर्फ जुर्माने तक सीमित नहीं होता, लोगों को अपना फेंका कचरा स्वयं उठाना होता है। सामुदायिक सेवा की सजा तक सुनाई जाती है। कोई भी आदत बचपन में ही प्रभावी ढंग से डाली जा सकती है। यदि स्कूली बच्चों को शाला परिसर को स्वच्छ रखने के लिए प्रेरित करना हो तो सबसे अच्छा तरीका तो यही जान पड़ता है कि उन्हें स्वच्छता कार्यों से सीधे जोड़ दिया जाए। थोड़े दिन सफाई करेंगे तो फिर कचरा बिखेरना बंद कर देंगे। चिप्स कुरकुरे के पैकेट सीधे डस्टबिन में डालेंगे। कागज फाड़कर जहां-तहां नहीं फेंकेंगे। एक बार आदत पड़ गई तो स्कूलों का कायाकल्प हो जाएगा। यही बच्चे कल देश के नागरिक होंगे। स्वच्छता आदत में शामिल होगी तो किसी को स्वच्छता का ब्रांड अम्बेसेडर घोषित किये बिना ही देश स्वच्छता के लक्ष्य को सहज प्राप्त कर लेगा।