-दीपक रंजन दास
स्वास्थ्य मंत्री श्यामबिहारी जायसवाल ने छत्तीसगढ़ की स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने के प्रयास शुरू कर दिये हैं। आयुष्मान कार्ड से पांच लाख रुपए की चिकित्सा सेवा मुफ्त करने के साथ-साथ सरकारी अस्पतालों को अपग्रेड करने के लिए उन्होंने एक नया रोडमैप तैयार किया है। इन चिकित्सालयों की क्षमता बढ़ाने के साथ-साथ वे चिकित्सकों की कमी को दूर करने की भी बात करते हैं। उन्होंने डाक्टरों के लिए बांड नीति को जारी रखने की घोषणा करते हुए कहा है कि ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों में एक-एक साल तक उन्हें बांड के तहत अनिवार्य सेवा देनी होगी। इसके बाद भी जरूरत पड़ी तो पैकेज पर पड़ोसी राज्यों से डाक्टर बुलाए जाएंगे। उन्होंने सरकारी चिकित्सालयों एवं मेडिकल कालेजों को भी उन्नत करने का प्लान बनाया है। उन्होंने चिंता जाहिर की है कि सरकार द्वारा इतने उपाय किये जाने के बाद भी गरीबों को निजी अस्पतालों को रिफर किया जा रहा है जहां जाकर वे अपनी तमाम जमा पूंजी गंवा रहे हैं। यहां दो बातें हैं, आम आदमी को लगता है कि पांच लाख तक का आयुष्मान कार्ड बन गया तो वे चिकित्सा पर होने वाले खर्च से मुक्त हो गए। पर ऐसा है नहीं। आयुष्मान कार्ड में चिकित्सा सेवाओं के अलग-अलग पैकेज होते हैं। कार्ड में कितना भी पैसा क्यों न पड़ा हुआ हो, यदि किसी खास बीमारी के लिए पैकेज 22 हजार का है तो इससे ऊपर होने वाला खर्च मरीज को उठाना पड़ता है। यह अपने आप में एक ऐसा फंदा है जिसमें मरीज से लेकर अस्पताल तक फंस जाते हैं। इसके साथ ही उन चिकित्सा पैकेजों से निजी अस्पतालों को अलग कर दिया गया है जो किसी भी अस्पताल के लिए रीढ़ को मजबूत करती है। यह मुसीबत निजी अस्पतालों की है कि उसके पास रोज की दाल रोटी कमाने का मौका हो या न हो, उन्हें विशेषज्ञ चिकित्सा सेवाएं देने के लिए खुद को तैयार रखना पड़ता है। सरकार को इस सवाल का भी हल ढूंढना चाहिए कि जब अन्य राज्यों के चिकित्सक यहां आकर निजी अस्पतालों में अपनी सेवाएं दे सकते हैं तो सरकारी क्षेत्र में क्यों नहीं। दरअसल, भारतीय सोच का यह नुक्स पुराना है। आजादी के बाद देश के उन तमाम उद्योगपतियों को लोहे के चने चबाने पड़े थे जिन्होंने ब्रिटिश काल में तेजी से तरक्की की थी। एक सोच यहीं से उपजी की उद्योगपति चोर होता है। अब इसका विस्तार निजी अस्पतालों तक हो गया है। जन-मानस यह मानकर चलता है कि निजी अस्पताल चोर हैं और उन्हें लूटने के लिए बैठे हैं। जबकि हकीकत यह है कि वे चिकित्सा सेवा की उन चुनौतियों को स्वीकार करते हैं जिसमें हाथ डालने से सरकारी अस्पताल इंकार कर देते हैं। इसलिए सबसे पहले तो सरकार आयुष्मान योजना की समीक्षा करे। यह जानने की कोशिश करे कि रेफरल और पैकेज के तहत इलाज कराने के बाद भी मरीज को जेब से पैसे क्यों देने पड़ते हैं।