-दीपक रंजन दास
कांग्रेस नेता राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा का मजाक उड़ाने वाली भाजपा अब स्वयं छोटी-छोटी यात्राएं निकाल रही हैं. मध्यप्रदेश के मंडला से भाजपा जन आशीर्वाद यात्रा का शुभारंभ करने जा रही है. केन्द्रीय गृहमंत्री इस यात्रा को हरी झंडी दिखाएंगे. कोशिश है कि ये यात्राएं सभी विधानसभा क्षेत्रों से होकर गुजरे. इसके लिए पांच रथ तैयार किये गये हैं. छत्तीसगढ़ में भी भाजपा दो यात्राएं निकालने जा रही है. इनका नाम परिवर्तन यात्रा रखा गया है. नामों का यह अंतर इसलिए कि मध्यप्रदेश में भाजपा की ही सरकार है जबकि छत्तीसगढ़ में सत्ता कांग्रेस के पास है. यहां वह परिवर्तन की आकांक्षी है. जन आशीर्वाद यात्रा को मंडला से निकालने की भी एक खास वजह है. मंडला गोंड रानी दुर्गावती की शौर्य भूमि है. इस एक कदम से भाजपा आदिवासी एवं पिछड़ा वर्ग पर ढीली होती अपनी पकड़ को वापस हासिल करना चाहती है. वैसे भाजपा का मौजूदा स्वरूप भी एक यात्रा की ही देन है. 1990 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी ने राम रथ यात्रा निकाली. इसके बाद उसके सांसदों की संख्या 85 से बढ़कर 120 हो गई. इससे भी पहले 1930 में महात्मा गांधी ने साबरमती आश्रम से दांडी तक एक पदयात्रा निकाली जिसे दांडी यात्रा के रूप में इतिहास में दर्ज किया गया है. यह यात्रा 385 किलोमीटर की थी. इस लिहाज से राहुल गांधी की पदयात्रा अब तक की सबसे लंबी पदयात्रा है. वैसे भाजपा ने कांग्रेस की नकल यह कोई पहली बार नहीं की है. कांग्रेस पर व्यक्तिवाद और परिवारवाद का आरोप लगाकर सत्ता में आई भाजपा स्वयं व्यक्तिवाद में बुरी तरह फंसी हुई है. मोदी के अलावा कोई प्रधानमंत्री का चेहरा नहीं, संजय मिश्रा के अलावा कोई ईडी का चेहरा नहीं. जाहिर है कि भाजपा संस्था की बजाय व्यक्ति पर फोकस्ड है. परिवारवाद भी आएगा, सरकार की अभी एक पीढ़ी गुजरी कहां है. जहां-जहां भाजपा लंबे समय तक सत्ता में रही है, वहां परिवारवाद के एक नहीं, कई उदाहरण मिल जाएंगे. यही भारतीय राजनीति की खूबसूरती है. यहां केवल शहरों का नाम बदल देने से भी लोग खुश हो जाते हैं. यह मानवीय स्वभाव है कि जिसे लोग पसंद करते हैं उसके सौ नखरे सह लेते हैं. उसकी हर हरकत अदा लगती है. पर यही दामाद जी जब फूफाजी बन जाते हैं तो असहनीय हो जाते हैं. बहरहाल, यहां बात यात्राओं की चल रही थी. मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों ही राज्यों में विधानसभा के चुनाव आगे पीछे होने हैं. अभी चुनावों की घोषणा नहीं हुई है. इसलिए अभी किया जाने वाला कोई भी खर्च चुनाव खर्च में नहीं जुड़ेगा. अजीब हिसाब किताब है, काम सारे चुनावी हो रहे हैं, माहौल बनाया जा रहा है पर चुनाव आयोग का डंडा केवल प्रत्याशियों के चुनाव खर्च पर चलने के लिए मजबूर है. वह भी तब जब चुनाव की घोषणा हो जाए. ऐसे में “वन नेशन-वन इलेक्शन” की जरूरत ही क्या है?
Gustakhi Maaf: राहुल की बड़ी यात्रा, भाजपा की छोटी-छोटी
