-दीपक रंजन दास
छत्तीसगढ़ पिछले कुछ वर्षों से उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बुलेट ट्रेन की स्पीड से भाग रहा है। हर दिन एक नई घोषणा होती है। हर साल नए शिक्षा सत्र से सरकारी कालेजों की संख्या बढ़ जाती है, सीटों की संख्या में इजाफा हो जाता है। यह रफ्तार इतनी ज्यादा है कि निजी क्षेत्र सांसें रोककर अपने अंत का इंतजार कर रहा है। पर जब रफ्तार ज्यादा हो तो हपट कर गिरने की संभावना भी ज्यादा हो जाती है। कुछ ऐसा ही हो रहा है मेडिकल की पढ़ाई के क्षेत्र में। अन्यान्य डिग्रियों के मुकाबले मेडिकल की डिग्री की कहानी अलग है। इसमें नौकरी मिले न मिले एमबीबीएस डिग्री धारी मोहल्ले में क्लिनिक खोलकर भी चार पैसे कमा ही सकता है। व्यवहार अच्छा रहा तो गाड़ी-बाड़ी का सपना पूरा करने लायक कमाई भी हो ही जाती है। भले ही इसके लिए उसे सुबह से देर रात तक जगह बदल-बदल कर काम करना पड़े। पर अफसोस तब होता है जब धरती के इन भगवानों को अपने ही गांव में इज्जत नहीं मिलती। चिकित्सा से जुड़े सभी लोग निजी प्रैक्टिस नहीं कर सकते। कुछ लोगों का काम अस्पताल के बिना नहीं चल सकता। इसमें पोस्ट ग्रैजुएट डाक्टर्स, सर्जन, एनेस्थीसिया, इंटेंसिविस्ट जैसे विशेषज्ञ शामिल होते हैं। डायग्नोस्टिक्स का सेटअप भी काफी महंगा होता है। यदि ऐसे लोगों को राज्य के भीतर काम नहीं मिलता, इज्जत नहीं मिलती तो वो भाग ही जाते हैं। प्रदेश के सरकारी मेडिकल कालेजों में एमबीबीएस की सीटें तो बढ़ रही हैं पर डाक्टरों के लिए इसमें ज्यादा कुछ नहीं है। प्रदेश के 10 सरकारी मेडिकल कॉलेजों में 1039 पद खाली है। प्रदेश के सबसे पुराने रायपुर मेडिकल कालेज में 2007 से 2023 के बीच सीटें 150 से बढ़कर 230 हो गईं पर सेटअप नहीं बदला। बिलासपुर, रायगढ़, अंबिकापुर, राजनांदगांव, जगदलपुर में भी ईडब्ल्यूएस की सीटें बढ़ी हैं। पिछले दो साल में दुर्ग, कांकेर, महासमुंद व कोरबा में नए मेडिकल कालेज खुले हैं पर वहां भी फैकल्टी की भारी कमी है। दिक्कत यह भी है जो लोग इन मेडिकल कालेजों में काम कर रहे हैं वो भी नौकरी छोड़-छोड़ कर जा रहे हैं। पिछले तीन साल में 200 से ज्यादा डाक्टरों ने नौकरी छोड़ी है और मध्यप्रदेश शिफ्ट हो गए हैं। वजह है सेवा शर्तें। पड़ोसी राज्य मध्यप्रदेश में स्वशासी समिति से नियमित भर्ती हो रही है जो न केवल डॉक्टरों का समय पर प्रमोशन करती है बल्कि हर साल वेतनवृद्धि भी देती है। यह चिंता का विषय इसलिए भी है कि फैकल्टीज की कमी के कारण कभी भी राज्य के सरकारी मेडिकल कालेजों की मान्यता रद्द हो सकती है। दूसरी बात यह है कि जिन होनहारों ने नीट में सबसे ज्यादा अंक हासिल किए थे, वही इन मेडिकल कालेजों में विद्यार्थी हैं। यदि फैकल्टी पूरे नहीं हुए तो इनकी शिक्षा बाधित होगी और उनका पूरा करियर चौपट हो जाएगा। ऐसे में सिर्फ सीटें बढ़ाने का क्या फायदा?
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