-दीपक रंजन दास
अधिकांश लोगों का सपना एक अदद सरकारी नौकरी का होता है। नौकरी मिलते ही वे अपने दायरे तय कर लेते हैं और उसके भीतर रहकर लाइफ एंज्वाय करने लगते हैं। पर कुछ लोगों के सपने बड़े होते हैं। वे निरंतर अपना श्रेष्ठ देने में यकीन करते हैं। ऐसे लोगों के लिए मंजिल भी एक पड़ाव की तरह होती है। जहां कुछ देर ठहरकर वे नई मंजिल निश्चित कर लेते हैं और फिर प्रयास में जुट जाते हैं। ऐसा ही किया किसान पुत्र महेन्द्र सिदार ने। रायगढ़ के कांटाहरदी गांव के किसान मुरलीधर सिदार के यहां उनका जन्म हुआ। पढऩे में तो मेधावी थे ही, उन्हें जल्द से जल्द रोजगार प्राप्त करने की तलब भी थी। इसलिए उन्होंने इंजीनियरिंग की बजाय पालीटेक्नीक की राह पकड़ी और इलेक्ट्रानिक्स में डिप्लोमा प्राप्त कर लिया। 2013 में इसी के बिना पर उनकी पुलिस में नौकरी लग गई। आरक्षक के पद पर नौकरी लगने के बाद महेन्द्र ने बीएससी किया। पुलिस की बेहद थका देने वाली नौकरी में रहते हुए पढ़ाई जारी रखना एक बड़ी चुनौती होती है। पर महेन्द्र ने इस चुनौती को स्वीकार किया। जब सहकर्मियों और अधिकारियों ने उनकी जिजीविषा देखी तो उन्होंने भी यथासंभव सहयोग किया। महेन्द्र ने पढ़ाई करना जारी रखा। जब लोग मोबाइल गेम खेलकर, रील्स देखकर या गप्पें मारकर अपना समय नष्ट करते तब महेन्द्र पीएससी की तैयारी में जुटा होता। किसी कोचिंग में जाने की उन्हें फुर्सत नहीं थी। पर अपनी हर फुर्सत को काम पर लगाने की कला उन्हें खूब आती थी। छत्तीसगढ़ बोर्ड से पढ़ाई करने के कारण राज्य के बारे में उनकी जानकारी वैसे भी अच्छी थी। उन्होंने इसे ही मांजना शुरू किया। सावधानी से वैकल्पिक विषय चुना और उसके बारे में ज्यादा से ज्यादा जानकारी जुटाने की कोशिश करते रहे। उन्होंने सीजी-पीएससी की परीक्षा दिलाई और जब नतीजे घोषित हुए तो उनकी खुशी का अंदाजा लगा पाना मुश्किल था। पीएससी 2021 की परीक्षा में उन्होंने 14वां स्थान प्राप्त किया था। उनका चयन डिप्टी कलेक्टर पद के लिए हो गया। उनसे ज्यादा खुश उनके साथी पुलिस कर्मी और अधिकारी थे। पर आमतौर पर ऐसा होता नहीं है। अपने साथ के लोगों का आगे बढ़ते देखकर ज्यादातर लोगों को कोफ्त ही होती है। यह सोचकर भी अधिकांश सहकर्मी निराश हो जाते हैं कि जो कल तक हमें सलाम करता था अब उसे सलाम करना पड़ेगा। पर हंसमुख, मिलनसार और अपने काम से काम रखने वाले महेन्द्र के साथ ऐसा नहीं था। उन्होंने अपनी सफलता का श्रेय भी अपने सहकर्मियों और अधिकारियों को ही दिया। दूसरों के हिस्से का श्रेय भी स्वयं लूटने वाले ही अकसर अकेले रह जाते हैं। अलग-थलग पड़ जाते हैं। न तो कोई उनकी खुशी में खुश होता है और न ही उनके दु:ख में सहभागी बन पाता है। महेन्द्र हर उस युवा के लिए एक नजीर बन गए हैं जो अपने जीवन के साथ कुछ करना चाहते हैं।
