-दीपक रंजन दास
सर्कस कला अब अपनी अंतिम सांसें गिन रही है. नियम कानूनों ने सर्कस से शेर-भालू-चीतों को गायब कर दिया. इनके साथ ही गायब हो गए लोहे के वो खांचे जिन्हें वन्य प्राणियों के कर्तब से पहले लगाया जाता था. इसका भी एक आर्ट था. एक शो के अंत में लोहे के खांचे खड़े कर शेर-भालू के करतब दिखाते जो उसके बाद के शो तक वैसा ही लगा रहता. दूसरे शो का पहला शो शेर-भालू का होता और आखिरी खेल होता ट्रैपीज का. पूरे मंच को कवर करते हुए एक विशाल जाल फैला दिया जाता जो किसी ट्रैम्पोलीन की तरह मजबूत होता. रस्सी की सीढ़ियों के सहारे कलाकार तेजी से चढ़कर तंबू की छत तक पहुंचते और वहां बने मंचों पर टिक जाते. ऐसे दो-तीन मंच होते जिनके पास एक-एक लंबी रस्सियों वाला झूला भी होता. इन झूलों से उल्टा या सीधा लटककर कलाकार करतब दिखाते. विपरीत दिशा में छोटे झूले होते. इन झूलों पर दो हट्टे कट्टे कलाकार उलटा लटके होते. झूलकर अपने पास पहुंचने वाले कलाकारों को कभी वो हाथ तो कभी पैरों से पकड़ लेते. एक दो बार झुला कर फिर वापस छोड़ देते. कलाकार अपने झूला पकड़कर अपने घर लौट जाता. इस खेल में जोकर भी हिस्सा लेते. रस्सी की सीढ़ी के सहारे ऊपर चढ़ते-चढ़ते वे कई बार गिर जाते और जोर-जोर से रोने लगते. बच्चे खुश हो जाते. कभी वह ऊपर तक पहुंच जाते तो वहां से कलाकार उन्हें वापस धकेल देते. जब वे झूले का खेल दिखाते तो उनके पांव पकड़ने के बजाय कैच करने वाला कलाकार उनकी पैंट पकड़ लेता. बेचारा कच्छे में झूलकर वापस आता. ट्रैपीज जैसा ही खेल है राजनीति का भी. यहां चुनाव से पहले मचान बनाया जाता है. छोटे-बड़े नेता अकेले या समूह में इधर से उधर जाते हैं. बाकायदा मंच पर लाकर इन्हें पार्टी प्रवेश दिया जाता है. सामान्य व्यक्ति जब किसी पार्टी की सदस्यता लेता है तो अकसर उसे रसीद तक नहीं दी जाती पर जब कोई किसी और पार्टी को छोड़कर आता है तो उसका भव्य स्वागत किया जाता है. इस खेल में भी कुछ जोकर होते हैं. वे पार्टी तो बदल लेते हैं पर कोई उनका पजामा रख लेता है तो कोई टोपी छीन लेता है. ऐसे नेता जरा सी घुड़की मिलने पर अपनी मूल पार्टी में लौट भी जाते हैं. फिलहाल छत्तीसगढ़ में यह खेल शुरू हो चुका है. लोग झुंड में पाला बदल रहे हैं. वैसे दोनों ही दलों ने कह रखा है कि नए आने वालों को टिकट नहीं दिया जाएगा. नई नवेली बहू को ससुराल में एडजस्ट होने में समय तो लगता ही है. नया घर, नया परिवार, नए संस्कार. नारे लगाते समय भी इन्हें खास सावधानी बरतनी पड़ती है कि कहीं मुंह से कुछ गलत न निकल जाए. आखिर चमड़े की जुबान है, फिसल ही जाती है.
Gustakhi Maaf: सर्कस का ट्रैपीज और राजनीति का मौसम
