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Gustakhi Maaf: बिहार में मानव बलि के विरोध में 5 लोगों की बलि
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Gustakhi Maaf: गलियों से निकल कर रिसॉर्ट तक पहुंची शादियां

By Om Prakash Verma Published February 20, 2023
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Gustakhi Maaf: बिहार में मानव बलि के विरोध में 5 लोगों की बलि
Gustakhi Maaf: बिहार में मानव बलि के विरोध में 5 लोगों की बलि
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-दीपक रंजन दास
भारत में अरबपतियों की संख्या भले ही गिनती की हो, पर दो-तीन दिन के दिखावे पर 30-40 लाख रुपए फूंक देने वालों की अच्छी खासी संख्या है। यकीन न आ रहा हो तो शादियों पर होने वाली फिजूलखर्ची को देखा जा सकता है। बारात स्वागत से लेकर विशाल प्रांगण की भव्य सजावट और 56 भोग की पार्टियों पर इससे भी ज्यादा रकम फूंकी जा सकती है। कहां तो बेटी के पिता को कर्ज से बचाने दान-दहेज के खिलाफ बातें होती थीं और कहां अब देखादेखी और बराबरी के फेर में पड़े माता पिता लाखों रुपए हवा में उड़ा रहे हैं। दो-तीन दशक पहले तक आम शहरी शादियों गली मोहल्लों में हो जाती थीं। एक तरफ से रास्ता रोककर पंडाल गाड़ देते थे और हलवाई किसी खाली प्लाट पर पकवान तैयार कर लेता था। जब इससे लोगों की दिक्कतें बढ़ीं तो शासन और संस्थाओं के सहयोग से मंगल भवन बनने लगे। एक हाल, दो चार कमरे और थोड़ी खुली जगह को इसके लिए काफी समझा जाता था। पर अब दौर बदल चुका है। साधारण मध्यवित्त परिवार की शादी में भी 30-40 कारें आ पहुंचती हैं। इनके लिए पार्किंग की व्यवस्था करना बेहद मुश्किल होता है। अधिकांश परिवार अब आधुनिक हो गए हैं। वे दान-दहेज की बातें नहीं करते। यह सारा सामान तो वे ईएमआई पर कभी भी खरीद सकते हैं। उनके लिए शादी एक ही बार होती है – इसलिए वह खूब भव्य होना चाहिए। दूल्हा दुल्हन दोनों को अब ब्यूटी पार्लर और सलून तैयार करते हैं। हजारों का लहंगा सिलता है जिसे उठाकर चलना भी दुल्हन के लिए मुश्किल होता है। लेडीज संगीत भी जरूरी है। इसके लिए हॉल भी चाहिए। हरिद्रा लेपन भी अब आंगन में होने वाली परम्परा मात्र नहीं रही। इसके लिए भी खूब सजा हुआ हॉल चाहिए। इतने से निपट लिया तो भव्य बारात चाहिए। उससे भी ज्यादा भव्य वैवाहिक मंडप चाहिए। आगंतुकों के लिए भोजन और ठहरने की व्यवस्था भी शानदार होना चाहिए। इस सबसे पूर्व प्रीवेडिंग शूट भी चाहिए। इसका तस्वीरें कुछ लोग कार्ड पर ही छापने लगे हैं। कुछ लोग इसके लिए विवाह वाली जगह पर ही एक विशाल डिजिटल स्क्रीन लगा देते हैं। उसपर प्रीवेडिंग फोटो शूट की नुमाइश लगाई जाती है। लाखों रुपए खर्च करने के बाद भी विदाई के बाद का दृश्य लगभग एक जैसा रहता है। चिंता में डूबा बेटी का बाप, हलाकान-परेशान दुल्हन का भाई और पार्टी के दूसरे दिन खण्डहर जैसा खाली पड़ा पंडाल। पूछने पर सामने से सपाट जवाब आता है। बच्चों की खुशी के लिए करना पड़ता है साहब। हम तो चाहते थे कि बेटी की शादी के लिए जोड़ी गई यह रकम उनके भविष्य को संवारने के काम आए। पर उनके सपनों का क्या? टीवी सीरियल्स में शादी के भव्य समारोह देखदेख कर लोगों की पसंद बदल चुकी है। अब तो बेटियां ही जिद पर अड़ जाती हैं। उनकी आंखों में आंसू कैसे आने दें?

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