-दीपक रंजन दास
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की तीन दर्जन से अधिक आनुषांगिक इकाइयां हैं। भारतीय जनता पार्टी उसकी राजनीतिक इकाई मात्र है। संघ प्रचारक इसके संगठन की जिम्मेदारियां संभालते रहे हैं। छत्तीसगढ़ के उद्योग एवं आबकारी मंत्री कवासी लखमा ने सर्व आदिवासी समाज को भाजपा की बी-टीम कहा। संघ की आनुषांगिक इकाइयों को भाजपा की बी-टीम कहना गलत है। ये भाजपा के सहोदर हैं। सर्व आदिवासी समाज ने भानुप्रतापपुर उपचुनाव में अपना प्रत्याशी उतारकर कांग्रेस का वोट काटने की कोशिश की थी। इससे उसकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा का खुलासा हो गया था। उसे आंशिक सफलता भी मिली थी पर कांग्रेसी वोटों का यह बंटवारा अंत-पंत किसी काम नहीं आया था। वैसे भी राजनीति एक खेल है, इसके उस्ताद भी होते हैं। जो इस खेल को चतुराई से खेलता है, वही अपना स्थान बना पाता है। शकुनी असफल रहे थे, चाणक्य सफल हुए। लोकतंत्र में जनता को लगता है कि वह अपने प्रतिनिधि चुनकर विधानसभा और लोकसभा में भेजती है। यह उसका भ्रम मात्र है। दरअसल, पार्टियां अपने आदमी खड़ा कर उन्हें जिता कर ले जाने की कोशिश करती हैं। इनकी जीत कि लिए जो रणनीति बनाई जाती है, वही राजनीति है। कभी प्रत्याशी अपनी लोकप्रियता के कारण जीतता है तो कभी वह पार्टी की लोकप्रियता की वजह से जीतता है। जब जीत सुनिश्चित करनी हो तो तिकड़में लगाई जाती हैं। जीतने वाले प्रत्याशियों के वोट काटने के समीकरण बैठाए जाते हैं। उनके खिलाफ दुष्प्रचार होता है। मिलते जुलते नाम वाले प्रत्याशी उतारे जाते हैं। असंतुष्ठों को बरगलाकर पार्टी प्रत्याशी के खिलाफ खड़ा कर दिया जाता है। इसका पूरा खर्चा विरोधी दल उठाता है। आज बहुत कम नेता ऐसे मिलेंगे जो खुद को जनता का प्रतिनिधि मानते हैं। जिससे भी पूछो, एक ही जुबान कहता मिलेगा- ‘हम पार्टी के निष्ठावान हैं, पार्टी जैसा कहेगी, जैसा चाहेगी, वैसा ही करेंगे।Ó इसके बाद भी यदि किसी को लगता है कि विधायक या सांसद उसका प्रतिनिधि है तो उसके भोलेपन को सलाम। वैसे राजनीति का अपना गणित भी होता है। प्रत्येक चुनाव में करोडों की संख्या में नए मतदाता शामिल होते हैं। 2014 के बाद जब 2019 में लोकसभा के चुनाव हुए तो इसमें 8।43 करोड़ नए मतदाताओं ने हिस्सा लिया था। इनमें से लगभग सभी की उम्र 18 से 23 वर्ष के बीच थी। इन पर सोशल मीडिया का अच्छा खासा प्रभाव था। सोशल मीडिया का ट्रेंड उन दिनों प्रोफेशली सेट किया जाता था। यह इतना लोकप्रिय हुआ कि सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स की बाढ़ आ गई। अब यह किसी के नियंत्रण में नहीं है। अब किसी पार्टी के युवा नेता को मुफ्त में बदनाम नहीं किया जा सकता। उसके बचाव में युवाओं का एक हुजूम खड़ा हो चुका है। इसी तरह सर्टिफाइड देशभक्तों की कलई खोलने वाले भी सोशल मीडिया पर खोजी पत्रकारिता कर रहे हैं। अब त्रिस्तरीय जंग है जिसमें वोट मांगने वाले, वोट देने वाले और वोटों को प्रभावित करने वाले लोग अलग-अलग हैं।
Gustakhi Maaf: राजनीतिक दलों की ए-टीम, बी-टीम
