-दीपक रंजन दास
आज बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर की यह बात रह-रह कर याद आ रही है- ‘जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती, वह कभी इतिहास नहीं बना सकती।’ शायद उन्होंने महसूस किया था कि गहन निराशा के दौर में जहां आपका इतिहास आपमें शौर्य और साहस जगाता है वहीं उत्कट परिस्थितियों में आपको रास्ता भी दिखाता है। जिस कौम को अपना इतिहास नहीं पता वह शाख से टूटे हुए उस सूखे पत्ते की तरह होता है जिसे मंद पवन भी उठाकर कहीं से कहीं फेंक सकती है। लोकतंत्र में बाबा साहेब की यह उक्ति और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। यहां अपने भाग्य का फैसला स्वयं जनता करती है। इसलिए जनता का न केवल जागरूक होना बल्कि जानकार होना भी जरूरी हो जाता है। भारत की आबादी आज एक विचित्र मोड़ पर खड़ी है। इतिहास की उसे बस कुछ धुंधली-धुंधली सी यादें हैं। उसे अपने पिछले 100 साल का इतिहास भी ठीक-ठीक मालूम नहीं। चतुर राजनेता उन्हें रोज एक नई कहानी सुनाते हैं और ‘मॉरल ऑफ द स्टोरी’ भी समझाते हैं। खाली घड़ा चार बूंद पानी से ही छलकने लगता है। यकीन न आ रहा हो तो किसी स्कूली बच्चे से बहस करके देख लो। वह जो भी इतिहास जानता है, उसपर उसे इतना यकीन है कि वह पूरे दावे के साथ अपनी बात रखता है। उसके किशोर मन में इतना जहर भर दिया गया है कि उससे अब कोई भी तर्कसंगत बात नहीं की जा सकती। उसे यह इतिहास कौन सिखा-पढ़ा रहा है, यह जानने तक की हम जरूरत महसूस नहीं करते। थोड़ी सी भी कोशिश करते तो यह पता चल जाता कि इस कूटरचित इतिहास और धर्म की रोज नई व्याख्या के पीछे एक सोची समझी साजिश है। भाव चाहे भय का हो या फिर नफरत का, दोनों ही सोचने-समझने की शक्ति छीन लेते हैं। दोनों ही स्थिति में मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो देता है। ऐसा व्यक्ति किसी आतंकी संगठन के ‘स्लीपर सेल’ जैसा हो जाता है जिसे जब चाहे नेपथ्य से जगाया जा सकता है, उससे मनचाहा काम करवाया जा सकता है। दरअसल, लोकतंत्र ने सत्ता लोलुपों की राह को कठिन बना दिया है। अब न तो पिता को मारकर बेटा गद्दी नशीन हो सकता है और न ही भाई की हत्याकर भाई सत्ता छीन सकता है। राजा-रजवाड़ों के वो दिन भी लद गए जब किसी भी राज्य पर हमला कर उसके सिंहासन पर कब्जा किया जा सकता था। लोकतंत्र में राजा बनने के लिए प्रजा का ठप्पा चाहिए। प्रजा का विश्वास जीतने में लंबा वक्त लग सकता है किन्तु उसमें नफरत भरकर, फसल जल्दी उगाई जा सकती है। यह एक आसान विकल्प है। कहा भी गया है कि इश्क और जंग में सबकुछ जायज है। यह साजिशों का दौर है जिसके आगे मानववाद, राष्ट्रवाद, देशभक्ति, शहादत सब फीके पड़ जाते हैं। लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ सिंहासन है। फर्क सिर्फ इतना है कि गद्दी छीनने के लिए पहले राजा का कत्ल होता था, अब जनता के नरसंहार का सामान है।
Gustakhi Maaf: जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती




