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Gustakhi Maaf: अब तो लगा ही डालो नाना का नाम

By Om Prakash Verma Published February 12, 2023
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Gustakhi Maaf: इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है पायलट का अनुभव
Gustakhi Maaf: इसलिए महत्वपूर्ण हो जाता है पायलट का अनुभव
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-दीपक रंजन दास
आयरन लेडी इंदिरा गांधी के सरनेम को लेकर उठा विवाद अब तक थमा नहीं है। इसका उपयोग देश के इस शीर्ष राजनीतिक परिवार को बदनाम करने के लिए समय-समय पर किया जाता रहा है। तमाम लेखकों ने इसे लेकर अलग-अलग किस्म के आरोप भी लगाए हैं और कल्पना के तार को जहां तक खींच सकते थे, खींचकर तोड़ भी चुके हैं। संकीर्ण सोच वाले रूढि़वादी विचारधारा के लोगों का यह फेवरेट पासटाइम रहा है। व्यक्ति किससे विवाह करता है, कौन सा सरनेम रखता है, यह निहायत ही उसका व्यक्तिगत मामला है। देश के अधिकांश राज्यों में विवाह के बाद युवतियां पति का सरनेम स्वीकार कर लेती हैं। इन राज्यों में मान्यता है कि बेटा ही वंश को बढ़ाएगा। इन्हीं राज्यों में बेटे की चाह में बेटियों को कोख में मारा जाता रहा है। कुछ राज्यों में तो स्थिति इतनी बिगड़ी है कि अब बेटों को बीवियां नहीं मिल रही। कुछ दक्षिणी राज्यों में मां का सरनेम आगे बढ़ाया जाता है। वैसे अब न्यू जनरेशन की बीवियां दोनों सरनेम यूज करने लगी हैं। एक-एक नाम के साथ दो-दो सरनेम जुडऩे लगे हैं। वैसे सरनेम का मामला सनातन नहीं है। साधु संन्यासियों के भी नाम बदल जाते हैं, सरनेम गायब हो जाता है। आजादी के बाद कुछ लोगों को मजबूरी में सरनेम रखना पड़ा। किसी ने जाति का, किसी ने गोत्र का सरनेम बना लिया। मोतीलाल नेहरू के पिता कौल कश्मीरी ब्राह्मण थे। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं। जवाहर लाल नेहरू उनके पुत्र थे। इंदिरा प्रियदर्शिनी उनकी बेटी थी। इंदिरा ने एक पारसी युवक फिरोज से विवाह किया। अंतरजातीय विवाह से कहीं राजनीतिक भूचाल न आ जाए, इसलिए महात्मा गांधी ने उन्हें अपना सरनेम दे दिया। इंदिरा और उनके बाद राजीव ने भी भारतीय परम्पराओं को ही आगे बढ़ाया। इंदिरा चली गईं, राजीव भी नहीं रहे पर उनके प्रभाव का भूत आज भी लोगों को सताता है। इसलिए रह-रहकर उनके विजातीय विवाह की बातें उठाई जाती हैं। कुछ लोगों पर इसका प्रभाव भी पड़ता है पर अधिकांश लोगों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वह 40 के दशक का भारत था जब हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई यहां तक कि कुछ अंग्रेज भी भारत की आजादी की पैरोकारी कर रहे थे। भारत आजाद हुआ, बबा मर गए तो खटिया की लड़ाई शुरू हो गई। अब हर कोई हक जता रहा है कि बबा का कमरा किसके हिस्से में आना चाहिए। इतिहास गवाह है कि संपत्ति अंत-पंत संभालता वही है जिसमें पुरुषार्थ होता है। भाइयों के इस झगड़े में वकीलों के अपने घर बन जाते हैं। पुरुषार्थ विहीन लोभियों के पास भुने चने तक नहीं बचते। भारतीय लोकतंत्र के लिए बेहतर यही है कि वे स्वयं को इस विरासत के योग्य साबित करें। वरना जब चने हाथ आएंगे तो मुंह में दांत न बचेंगे। सरनेम में क्या रखा है। पीएम ने कहा है तो रख लो नाना का सरनेम। क्या फर्क पड़ता है।

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Om Prakash Verma February 12, 2023
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