-दीपक रंजन दास
हिन्दुत्व को परिभाषित करने की कोशिश हम नहीं करेंगे. इस शब्द को राजनीति में लाने वाले विनायक दामोदर सावरकर का मानना था कि जो भी राष्ट्र (देश), जाति (नस्ल) और संस्कृति से भारतीय होगा, वही हिन्दू होगा. अर्थात हिन्दुस्तान (भारत) से बाहर जन्म लेने वाले धर्म कभी यहां के नहीं हो सकते. हिन्दू महासभा के इस नेता का मानना था कि हिंदुत्व, हिन्दू धर्म से कहीं ज्यादा है और इस राजनीतिक दर्शन को केवल हिंदू आस्था तक सीमित नहीं किया जा सकता. ऐसा मानने का एक कारण यह भी था कि इस देश के मूल निवासियों की आस्था कभी एक सी रही ही नहीं. भिन्न-भिन्न प्रांतों में खान-पान, पहनावा, संस्कार, उपासना पद्धतियां और मान्यताएं भिन्न-भिन्न थीं. जहां तक देश या राष्ट्र का सवाल है, यहां के सभी मतांतरित, चाहे वह ईसाई हों या मुसलमान, सभी इसी देश में पैदा हुए हैं. आस्था बदलने से किसी की नस्ल नहीं बदल जाती. नस्ल एक वैज्ञानिक कसौटी है जो आस्था को किसी खातिर में नहीं लाता. बची संस्कृति, तो वह अवश्य खतरे में हैं. ग्लोबल इंडिया में सनातन संस्कृति का उत्सव तो हो सकता है पर लोगों की फितरत नहीं बदली जा सकती. खास दिनों पर केक काटकर डीजे की धुन पर नाचने वाली जमात से उस हिन्दुत्व की उम्मीद नहीं करनी चाहिए, जो सावरकर के खयालों में थी. संघ की तमाम शाखाएं और वहां जाने वाले लोग भी केक कटिंग को नहीं रोक पाए हैं. आज खान-पान से लेकर पहरावे तक पर वैश्वीकरण की छाप है. विकास की अवधारणा भी पश्चिम पर टिकी हुई है. चौड़ी सड़कें, महंगी तेज रफ्तार कारें, बुलेट ट्रेन, फ्लाईओवर और आलीशान ड्राइंगरूम-बाथरूम वाले मकान एक नई संस्कृति को जन्म दे चुके हैं. और हम जानते हैं कि जिसका जन्म हो चुका है, उसे पलटा नहीं जा सकता. मूल सनातन में सोलह संस्कारों का वर्णन मिलता है. इनमें गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुंडन, कर्णवेधन, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशांत, सम्वर्तन, विवाह और अन्त्येष्टि संस्कार. इनमें से कितने संस्कार आज जीवित हैं? नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन, विवाह और अंत्येष्टि संस्कारों का पालन प्रायः सभी करते हैं. हालांकि इनका स्वरूप बिगड़ चुका है. बहुत कम घरों में नामकरण राशि के आधार पर पंडित करते हैं. जातकर्म और उपनयन संस्कार कुछ ब्राह्मण परिवारों में आज भी होता है. बंगाल में विद्यारंभ संस्कार का चलन है. शेष संस्कारों के बारे में अधिकांश लोगों को कुछ नहीं पता. विवाह संस्कारों में आमूलचूल परिवर्तन हो चुका है. प्री वेडिंग फोटोशूट, विवाह से पहले रिसेप्शन नए दौर का दस्तूर है. लिव-इन भी जोर पकड़ रहा है. कर्णवेधन अब या तो होता ही नहीं या फिर इतना होता है कि छेद गिनते रह जाओगे. ऐसे में सवाल उठता है कि जब संस्कार, संस्कृति कोई मुद्दा नहीं रही, नस्ल और देश अप्रभावित है तो हम क्या तलाश रहे हैं? दरअसल, हम सत्ता तक पहुंचने का और वहां काबिज रहने का एक सुगम मार्ग मात्र तलाश रहे हैं.
Gustakhi Maaf: 21वीं सदी में कितना बचा है हिन्दुत्व
