-दीपक रंजन दास
‘चिकनी चमेली, छुप कर अकेली, पव्वा चढ़ाके आई’ की धुन पर दोनों हाथों से पेग चुसकती लड़कियों को देखना हो तो आपका नवधनाढ्य आधुनिक हिन्दू समाज की शादियों में स्वागत है. यहां ‘लेडीज संगीत’ चल रहा है. डीजे का कान-फाड़ू शोर-शराबा है. आपस में बातचीत संभव नहीं है. डांस फ्लोर पर लड़कियां थिरक रही हैं. इन लड़कियों में दुल्हन भी शामिल होती है. सालियां दूल्हे को भी घसीट लाती हैं. किसी और के साथ खुशी-खुशी नाचने का संभवत: उसका यह आखिरी मौका है. दृश्य बदलता है दुल्हन हाथों में वरमाला लिये नाचती गाती मंडप की ओर बढ़ रही है. मंडप की ओर से दूल्हा भी नाचता हुआ बांहें फैलाए दुल्हन की ओर भाग रहा है. दोनों बगलगीर होकर मंडप की ओर बढ़ते हैं. यहां एकाएक उनपर परम्परा का ब्रेक लग जाता है. यहां पंडित बैठे हैं. दुल्हन के माता-पिता पीढ़े पर बैठे पूजा कर रहे हैं. दूल्हा पहुंचता है, उसके पांव पूजे जाते हैं. वह भी बैठ जाता है. एक हाथ में माइक पकड़े पंडित जी मंत्रोच्चार कर रहे हैं. फिर दुल्हन को बुलाया जाता है और नमो-नम: के साथ संस्कार सम्पन्न हो जाते हैं. जिनके पिता नहीं हैं या अपाहिज हैं, उनके यहां कन्यादान पर भी बवाल हो जाता है. फेमिनिज्म के इस दौर में कोई दुल्हन की मर्जी के खिलाफ नहीं जा सकता. वह कहती है कि उसकी छोटी बहन ही सारे संस्कार करेगी. लिहाजा पंडित को मानना ही पड़ता है. क्वांरी कन्या अपनी बड़ी बहन का कन्यादान करती है. बड़े-बूढ़े नाक-भौं सिकोड़ते हैं. कुछ मूंछ वाले पुरुषों के जबड़े चलने लगते हैं मानो वे दांत पीस रहे हों. पर भारतीय परम्परा का पालन करते हुए वे सब खामोश रहते हैं. कहीं शादी में विघ्न न पड़ जाए. दिक्कत यह नहीं है कि आप अपने जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना को अपने ढंग से चाहते हैं, उसका भरपूर आनंद लेना चाहते हैं. दिक्कत यह है कि आपको मंडप, कन्यादान और सप्तपदी जैसे संस्कार भी अपनी शादी के वीडियो में चाहिए. वीडियो की खातिर ही आप अपने उन भाइयों से लिपट कर रोती हैं, उन ज्येष्ठों के पांव छूती हैं जिनसे बोलचाल तक बंद है. सभी चुप रहते हैं और नेग देकर क्रोध में भोजन का तिरस्कार कर घर लौट जाते हैं. इस घटना को देखने के बाद बरबस ही हस्तिनापुर का राजदरबार याद आ जाता है. बच्चे बैठकर जुआ खेल रहे हैं, प्रचण्ड महारथी बैठे-बैठे दांत पीस रहे हैं. शांति बनाए रखने के लिए सब चुप हैं. इसे संस्कार नहीं नपुंसकता कहते हैं. यह वही नपुंसकता है जिसने द्रौपदी का चीरहरण होते देखा. यह वही नपुंसकता है जिसने अर्जुन को कुरुक्षेत्र के मैदान में धनुष उठाने से रोका. इसी नपुंसकता का अंत करने भगवान श्रीकृष्ण को गीता का उपदेश देना पड़ा. हिन्दुत्व को खतरा किसी और धर्म से नहीं, बल्कि खुद अपनी संस्कारहीनता से है. दरअसल, अपनी संतान को अंग्रेजी सिखाकर लाटसाहब बनाने की होड़ में हम उन्हें संस्कारों को समझाना भूल गए.
गुस्ताखी माफ़: चिकनी चमेली, पव्वा चढ़ाके आई
