-दीपक रंजन दास
देश में लोकतंत्र की भद्द पिटी है तो उसके लिए जितने जिम्मेदार नेता हैं, उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदार हम आम नागरिक हैं. नेता अपनी सुविधा के लिए जनता को भीड़ में तब्दील करने की कोशिश करते हैं औऱ हम उसमें शामिल हो जाते हैं. घर में खाने को कितना भी हो, मुफ्त भोजन का लालच हमें ट्रकों में बैठकर मीलों का सफर तय करने को मजबूर कर देता है. मुफ्त की दारू से चुनाव जीतना तो जैसे देश में परिपाटी ही हो गई है. संचार क्रांति के इस युग में ऐसे कितने नेता रह गए हैं जिन्हें लाइव सुनने के लिए लोग मरे जा रहे हों. फिर भी, प्रत्येक नेता की रैली में हजारों की भीड़ जुटाई जाती है. यातायात नियमों को धता बताकर ट्रकों, ट्रेलरों और डम्परों में लोगों को ढोया जाता है. ऐसे वाहन दुर्घटनाग्रस्त होने पर बीमे का एक रुपया नहीं मिलने वाला. फिर भी जनता के कथित हितैषी राजनीतिक दल, लोगों को इन वाहनों में भर-भर कर लाते हैं. नेता उनकी पीठ थपथपाते हैं. टीवी पर “तुलसी” को देखे बहुत दिन हो गये हैं. शायद लोग उन्हें दोबारा देखने के लिए मरे जा रहे थी. भाजपा स्मृति ईरानी की सभा में 50 हजार से ज्यादा की भीड़ जुटाने का दावा कर रही है. वह भी तब जब रूट बदलकर आ रहे वाहनों को पुलिस ने सभा स्थल तक आने ही नहीं दिया. लाए गए भोले भाले गांव वालों ने मीडिया से कहा कि उन्हें भोजन और पैसा देने का वायदा किया गया था. पर यहां तो पानी तक का इंतजाम नहीं है. लोग भूखे-प्यासे ही अपने गांव लौट गए. दरअसल, भीड़ भरी सभाएं सिर्फ एक माइंड गेम है. लोगों को ऐसा भ्रम होता है कि फलाना नेता इतना लोकप्रिय है कि उसे सुनने के लिए हजारों की भीड़ जुटी. पर यह भीड़ किस कीमत पर जुटाई जाती है, उसका किसी को कोई अंदाजा तक नहीं है. भीड़ को ढोने के लिए जिन मालवाहकों का इस्तेमाल किया जाता है, उन्हें सवारी बैठाने का परमिशन नहीं है. मतलब यह कि भीड़ का परिवहन अवैध रूप से किया जाता है. दूसरे, पूरा पुलिस प्रशासन सारे कामकाज छोड़कर भीड़ की व्यवस्था में लग जाता है. भीड़ और पुलिस प्रशासन की व्यस्तता का फायदा उठाकर अपराधी तत्व सक्रिय हो जाते हैं. जेबकतरे, लुटेरे, छिनतई करने वाले भीड़ में शामिल होकर अपना काम कर जाते हैं. इतनी मशक्कत के बाद जो जनसभाएं होती हैं, उसमें लोगों से कहने के लिए नेताओं के पास कुछ नहीं होता. उससे तो मोदी जी लाख गुना बेहतर हैं. टीवी और रेडियो पर उनके मन की बातें आती हैं. जिसे सुनना है सुन ले, जिसे नहीं सुनना वो बेशक क्रिकेट देख ले. संचार क्रांति के इस युग में होना भी यही चाहिए. चुनाव आयोग को ऐसी सभी सभाओं का संज्ञान लेकर इसके खर्च को पार्टी द्वारा किए गए चुनाव खर्च में जोड़ देना चाहिए. तभी नेताओं की अक्ल ठिकाने आएगी.