-दीपक रंजन दास
‘राम तेरी गंगा मैली हो गई, पापियों के पाप धोते-धोते’ में बात सौ टका खरी कही गई है. नदियों को जीवनदायिनी माना गया है. सभी सभ्यताओं का विकास नदियों के तट पर ही हुआ. पर सभ्यता जब असभ्यता में बदल गई तो नदियों का स्वरूप ही बिगड़ गया. पानी न केवल जीवन धारण के लिए आवश्यक है बल्कि पर्यावरण का भी आवश्यक तत्व है. प्यास बुझाने के साथ ही पानी नहाने, धोने, जलक्रीड़ा करने, खेतों को सींचने और भूमि की नमी को बनाए रखने के लिए भी जरूरी है. यातायात का सबसे सस्ता साधन भी जलमार्ग ही है. जब तक नदी के मार्ग में कोई बाधा न हो, वह निरंतर बहती है, सबकुछ बहाकर समन्दर तक ले जाती है. इससे उसकी स्वच्छता बनी रहती है. जब तक यह सिस्टम काम करता था, नदियों का जल पवित्र था. पर अब वक्त बदल गया है. पानी की उपलब्धता सुनिश्चित करने के लिए उसपर बांध, चेकडैम, एनीकेट और तरह-तरह की संरचनाएं खड़ी की जा चुकी हैं. अब नदी निरंतर बहने वाला पानी का स्रोत न होकर टुकड़े-टुकड़े जलाशयों में बंट गई है. इसलिए कुछ भी बहकर जाता नहीं. बांध, चेकडैम और एनीकेट के पास नदी में गाद जमा होती है. कुछ समय बाद गाद इतनी हो जाती है कि नदी की गहराई कम होने लगती है. इससे बांध की जलधारण क्षमता भी कम हो जाती है. पानी कम और कचरा ज्यादा होने पर गंध तो आएगी ही. इसलिए राजिम का पवित्र त्रिवेणी संगम अब अपनी बदहाली पर रो रहा है. महानदी, पैरी और सोंढूर नदियों का यह संगम अब रेत का मैदान मात्र है. बीच-बीच से लकीरों की तरह महानदी बहती है. प्लास्टिक बोरियों के अवशेष, ठंडा की गई पूजा-पाठ की सामग्री और शैवाल के चलते यहां से दुर्गंध उठने लगी है. झाड़-झंखाड़ ने इसे बदसूरत कर दिया है. दरअसल, बांधों के चलते इस इलाके में पानी बहुत कम शेष बचता है. नदी के इस बिगड़े स्वरूप को राजिम मेले का बेतरतीब आयोजन और बिगाड़ देता है. नदी की छाती पर रेत से भरे बोरों की सड़कें बनाई जाती हैं ताकि लोग नदी के बीच संगम तक जा सकें. यहां रेत भरी बोरियों से ही एक अलग कुंड बनाया जाता है जिसमें औघड़ और साधु संत शाही स्नान करते हैं. मेला खत्म होने के बाद यह सब खण्डहर के रूप में पड़ा रह जाता है. त्रिवेणी संगम होने के कारण यहां क्रियाकर्म भी खूब होता है. घी, तेल, फूल-पत्ता, आदि का खूब उपयोग होता है. मुंडन संस्कार के बाद बालों का भी गोला बनाया जाता है. इन सभी वस्तुओं को नदी में ठंडा करने का रिवाज है. नदी का चुल्लू भर पानी आवर्जना के इस बोझ को नहीं सह पाता. यहां सवाल आस्था का नहीं बल्कि नदी के अस्तित्व का है. नदी का उपयोग तो ठीक है पर उसका इस तरह बलात्कार करना कहां तक उचित है?