-दीपक रंजन दास
देश में कम्युनिस्ट भले ही हाशिए पर चले गए हों पर उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को चोर समझने की मानसिकता पर इसका कोई असर नहीं हुआ है। किसी बड़े का नुकसान होते, उसकी छीछालेदर होते, उसकी मिट्टी पलीद होते देखकर आम आदमी खुश ही होता है। छापे की राजनीति यहीं से शुरू होती है। बड़े लोगों के यहां छापे मारना शुरू कर दो, लोग तालियां बजाने लग जाते हैं। सरकार की जय-जयकार होने लगती है। दिक्कत केवल यही है कि केन्द्रीय एजेंसियां केवल उन्हीं राज्यों में सक्रिय होती हैं जहां उसकी अपनी सरकार नहीं होती। परेशानी का सबब यह भी है कि ये छापे चुनाव से साल-छह माह पहले पड़ते हैं। सरकारी एजेंसियां छापा मारती हैं और बाकी काम उनकी पोषित मीडिया कर देती है। छापे की खबरों की जुमलेबाजी भी लगभग फिक्स होती है – करोड़ों की चल-अचल संपत्ति और करोड़ों के दस्तावेज। बैंकों में लॉकर। आम आदमी को लगता है कि ये सब अवैध है। उनके खून-पसीने की कमाई यहां छिपाई गई है। उनका खून चूसकर यह रकम इकट्ठा की गई है। इनमें से अधिकांश मामलों में कार्रवाई सालों-साल चलती है। अंत-पंत अधिकांश मामले खारिज हो जाते हैं। पर तब तक सरकार का काम हो जाता है। इस देश में सबसे बड़ा गुनाह है अपनी हैसियत बनाना। यदि हैसियत बनानी है तो सबसे पहले राजनीतिक दलों के लिए थैली का मुंह खोल दो। इसमें भी मुसीबत है। यदि आपने गलत पार्टी को फाइनेंस कर दिया तो आपकी खैर नहीं। जिसके हाथ में जितना पावर, वह उसका उतनी ही बेशर्मी से इस्तेमाल करता है। हम चोरों पर कार्रवाई के खिलाफ नहीं हैं। हम दोष सिद्ध होने से पहले ही आदमी के चेहरे पर कालिख पोते जाने के खिलाफ हैं। ऐसे छापे आम तौर पर उन लोगों के यहां पड़ते हैं जो देश में रोजगार का सृजन कर रहे हैं। उनकी फैक्ट्री-दफ्तर सबकुछ सील करने का मतलब अर्थव्यवस्था को मजबूत करना तो हो नहीं सकता। सवाल यह है कि क्या ये कार्रवाई गुप्त नहीं हो सकती? ईडी को, आईटी को यदि कुछ भी संदिग्ध मिलता है तो वह उसकी जांच करे। पूछताछ भी करे। दोष सिद्ध करे और फिर संपत्ति कुर्क करने के साथ ही दोषी की इज्जत नीलाम कर दे। कोई नहीं रोकेगा। पर यहां तो कुल जरूरत ही अगले की इज्जत नीलाम करने की है, फिर चाहे दोष सिद्ध हो या न हो। ढोल नगाड़े बजाकर, अपनी पसंदीदा मीडिया को स्टोरी लीक कर छापेमारी शुरू करो। महीनों पूछताछ करो और करते ही चले जाओ। वैसे भी टैक्स के पैसे का उपयोग संदिग्ध हो चला है। सरकार इस राशि को अपनी खामख्याली पर खर्च करती है। व्यवसायियों का एक बड़ा वर्ग इससे नाराज है। वह कहता है कि इससे तो अच्छा है कि मंदिर, धर्मशाला, अनाथालय को चंदा दे दो। बाप-दादा का नाम तो होगा।
गुस्ताखी माफ: हेट स्टोरी : छापे की राजनीति और मीडिया ट्रायल
