-दीपक रंजन दास
देश में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर गहमागहमी का दौर चल रहा है। केन्द्र के सत्ताधारी गठजोड़ ने एक आदिवासी महिला को प्रत्याशी बनाया है। इससे पहले उसने एक पिछड़े को प्रधानमंत्री बनाया था। पिछड़ा प्रधानमंत्री बनने से पिछड़ों का कितना भला हुआ, इसका आकलन इस सवाल का भी जवाब हो सकता है कि आदिवासी राष्ट्रपति बनाने से आदिवासियों का कितना भला होगा। नक्सल आपरेशन्स में पिस रहे आदिवासियों का मामला उठाने पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक समाज सेवी संस्था के मुखिया पर 5 लाख रुपए का जुर्माना लगाया है। अदालत ने कहा कि उसने झूठा मामला उठाकर अदालत का समय बर्दाद किया। इस फैसले तक पहुंचने में अदालत को 12 साल लग गए। छत्तीसगढ़ की ही बात करें तो कोयला खदानों पर रहने वाले जंगल और वनवासियों को नेस्तनाबूद करने की पूरी तैयारी है। कहा जा रहा है कि छत्तीसगढ़ की कांग्रेस सरकार ने मना करने के बावजूद परसा-केते बासन कोयला खदान के दूसरे चरण की अनुमति अडानी को दे दी है। लोग बड़ी आसानी से यह भूल जाते है कि परसा-केते बासन कोल ब्लाक केन्द्र सरकार ने 2015 में राजस्थान को आवंटित किया है। इसका संचालन अडानी इंटरप्राइजेस करता है। अडानी को दिक्कतें आईं तो केन्द्र ने खदान संबंधी अपने नियमों में ही संशोधन कर लिया और राज्यों के सभी अधिकार छीन लिये। दरअसल दलित, पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, आदिवासी आदि केवल शब्द हैं। इनका उपयोग पिछले लगभग 50 सालों से देश में बजरबट्टू की तरह किया जा रहा है। बजरबट्टू को कहीं-कहीं नजरबट्टू भी कहा जाता है। कुछ राज्यों में इन्हें बजूका भी कहते है। इन्हें ऐसी जगहों पर लटकाया जाता है कि वह हर किसी को दिखाई दै। यह और बात है कि धूप में, बारिश में भी वह वहीं लटका रह जाता है। कहते हैं कि यह जिस घर के सामने लटका होता है, उस घर को नजर नहीं लगती। जानकार तो यहां तक बताते हैं कि इससे अपमृत्यु और दुर्घटना जैसी बलाएं भी टल जाती हैं। मौसम की मार से जब बजूका खराब हो जाए तो उसे बदल दिया जाता है। कहीं-कहीं हर साल एक खास मौके पर इसे बदलने का चलन है। आज अधिकांश घरों के आगे कथित काले घोड़े की नाल और काले रंग का पुतला औंधा लटका हुआ मिल जाएगा। पर इसका मतलब यह कतई नहीं है कि घर में रहने वाले सारे के सारे सदचरित्र और दयावान हो जाएंगे। बाहर बजूका लटका रहेगा और भीतर वो सारी कारस्तानियां चलती रहेंगी जो उनकी मूल फितरत है। वैसे एक बात यह अच्छी हो रही है कि लोग सनातन की ओर लौटने का सपना देख रहे हैं। काश! उनका यह सपना सच हो जाए। निषाद राज को भी उतना ही सम्मान मिले जितना किसी राजा-महाराजा को मिलता है। वरना वो तो बेचारे अपने प्रत्याशी की एक झलक पाने की कोशिश में चौखट से ही दुत्कारे जाते रहेंगे।
गुस्ताखी माफ: राजनीतिक गलियारों के ये मासूम बजरबट्टू
