-दीपक रंजन दास
जिनका जन्म 1980 से पहले हुए है, उन सभी ने कपड़ों की थैलियों का खूब उपयोग किया है। ये थैलियां बाजारों में नहीं मिलती थीं बल्कि इन्हें घर पर सीला जाता था। बच्चे हाफपैंट ही पहनते थे इसलिए थैले पापा की फुलपैंट से बनते थे। साइकिल का जमाना था। लोग खूब साइकिल चलाया करते थे। पैंट सीट के पास से घिस कर फट जाया करती थी। साबुत बचते थे पाइचे (पैंट का वह हिस्सा जो पैरों को ढंकता है)। इन्हें काट कर अलग कर लिया जाता था। एक तरफ से सील दिया और दूसरी तरफ हैंडल लगा दी। अधिकांश लोगों के यहां सिलाई मशीन होती थी। उन दिनों दहेज में ट्रांजिस्टर, साइकिल और सिलाई मशीन भी आती थी। अब बहुत कम घरों में सिलाई मशीन होती है। कुछ घरों में सिलाई मशीनें पुराने दिनों की निशानियों के रूप में संरक्षित हैं। कुछ समय तक लोग पुरानी पैंट को बाजार में दर्जी के पास ले जाकर थैलियां बनवाते रहे। फिर रेडीमेड का जमाना आ गया, ब्रैंडेड का दौर चला और दर्जी भी गिनती के रह गए। जो भी बचे – सबके सब सूट स्पेशलिस्ट। इनके पास थैलियां सिलवाने के लिए जाने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता था। अब तक बाजार में रेडीमेड थैलियां आ चुकी थीं। 5 रुपए से लेकर 30-40 रुपए तक की नाइलोन की थैलियां खूब मजबूत भी होती थीं। पर लोग इन्हें लेकर घर से निकलना भूल जाते हैं। इसका भी रास्ता निकला। पालीथीन कैरीबैग ने समस्या दूर कर दी। फल, सब्जी से लेकर किराने का हर सामान पालीथीन में ही घर आने लगा। हद तो तब हो गई जब गर्म चाय भी प्लास्टिक की थैली में बिकने लगी। इधर फेंके गए प्लास्टिक पालीथीन ने प्रकृति को नुकसान पहुंचाना शुरू कर दिया। पुराने दिनों की याद एक बार फिर सताने लगी। पर अब समस्या दूसरी है। पहले जहां घिसने, फटने या बदरंग होने पर कपड़ों को रिटायर किया जाता था वहीं अब शॉपिंग के दौर में कपड़े फटने से काफी पहले रिटायर हो जाते हैं। पर दिक्कत यह है कि दर्जी फटी जींस का थैला कैसे बनाए। बाजार में जितने का थैला आ जाता है उससे ज्यादा तो इसके रफू पर खर्च हो जाना है। इसलिए सरकार ने अब शहरी रोजगार योजना के तहत महिला समूहों को कपड़े का थैला बनाने के लिए प्रोत्साहित करना शुरू किया है। राजधानी रायपुर में 30 हजार महिलाओं को इससे जोड़ा जाएगा। इन महिलाओं ने कोरोना काल में मास्क बनाकर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई थी। तब जान बचाई थी अब पर्यावरण बचाएंगी। इधर डी-मार्ट, के-मार्ट, सी-मार्ट वालों ने भी कपड़े का थैला बेचना शुरू कर दिया है। पापा की पैंट वाला थैला अब सिर्फ यादों में होगा।
गुस्ताखी माफ: पुरानी पैंट से बनाते थे थैली, फटी जींस का क्या करें
