-दीपक रंजन दास
छत्तीसगढ़ में मतदान का अंतिम चरण पूरा होकर दस दिन बीत चुके हैं। एक सप्ताह बाद इसके नतीजे भी आ जाने हैं। जिन नेताओं को दूसरे राज्यों में चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी मिली है, वो अब भी व्यस्त हैं। पर जिन्हें पार्टी ने इस लायक भी नहीं समझा, वो यहीं हवा में लाठी भांज रहे हैं। ये सब के सब बेकार बैठे हैं। बेकार लोग किसी जमाने में चौपाल में अड्डा मारा करते थे। उनके बाद की पीढ़ी ने इसके लिए पानठेला चुना। कुछ लोग चाय की गुमटियों में बैठकी जमाते हैं। खूंटों पर कील से ठुकी पटरी पर बैठकर वो देश दुनिया की चिंता करते हैं। फिलहाल नेता और राजनीतिक पत्रकार दोनों ठल्ले बैठे हैं। ऐसे में नेता की जिम्मेदारी बनती है कि वह मीडिया को मसाला दे। भाजपा के एक सीनियर नेता ने मीडिया को मुद्दा दे दिया। उन्होंने कहा कि महतारी वंदन योजना से कांग्रेस की पैंट गीली हो गई है। कांग्रेस के प्रवक्ता ने तत्काल इसपर अपनी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि भाजपा का यह नेता सबसे ज्यादा अभद्र और अशिष्ट है। उन्होंने कहा कि भाजपा बौखलाई हुई है, इसलिए उसके नेता अपनी खीझ निकाल रहे हैं। हालांकि, इन दोनों ही बातों का कोई मतलब नहीं है। बदतमीज और घमंडी नेताओं को जनता समय आने पर सबक सिखा ही देती है। दरअसल, यह अपसंस्कृति उसी सामंती व्यवस्था का हिस्सा है, जिसे संविधान के द्वारा खत्म करने की कोशिश की गई थी। आज भी बड़े लोग अपनी बैठकों में बैठकर अभद्र और अशालीन भाषा का उपयोग करते हैं। नेताओं, खासकर महिला नेताओं को लेकर भद्दी टिप्पणियां करते हैं। यहां चलने वाले चुटकुलों को सुनकर सभ्य समाज के कान लाल हो सकते हैं। चमचा टाइप के लोग इसी पर ही-ही खी-खी कर लेते हैं। दाऊ को न तो कोई टोकता है और न ही उसे आईना दिखाता है। लिहाजा बदतमीज और भी ज्यादा बदतमीज हो जाता है। जब बदतमीजी आदत बन जाती है तो अपने पराए का भेद भी जाता रहता है। लोग उनके साथ भी बदतमीजी कर बैठते हैं जो उनके लिए अपनी जान दांव पर लगाया करते हैं। चमचा हो या चेला, बैठक में अपनी बेइज्जती पर चुप ही रहना पसंद करता है। पर अपमान को पचा पाना बड़े साहस का काम है। प्रत्यक्ष तौर पर तो वह खिसियानी हंसी हंसकर चुप हो जाता है पर भीतर ही भीतर आग सुलगती रहती है। ऐसे छपरी टाइप को एक दिन वह खुद ही टपरी पर बैठा आता है। पहले भी कई नेताओं ने अपने बड़बोलेपन और बेलाग जुबान की भारी कीमत चुकाई है। जो समझदार होते हैं, सुधर जाते हैं। जनता उन्हें दोबारा मौका भी देती है पर जिनकी दुकान ही किसी और के नाम पर चल रही हो, वो भला क्यों इसकी परवाह करने लगे। वैसे रेवडिय़ों के खिलाफ खड़े लोग एकाएक दरियादिल कैसे हो गए, यह सवाल तो पूछा ही जा सकता है।
Gustakhi Maaf: भाजपा-कांग्रेस के इस बेसब्रेपन का क्या मतलब
