-दीपक रंजन दास
1970-80 के दशक तक परीक्षाओं में वर्णनात्मक प्रश्न ही ज्यादा पूछे जाते थे। कहा यह भी जाता था कि जितने पन्ने भरोगे, उतने ज्यादा अंक मिलेंगे। यहां तक कहा जाता था कि कापियों को जांचने वाला पहले उसे हाथ में उठाकर अंदाजे में तौलते हैं और फिर प्राप्तांक भर देता हैं। कुछ परीक्षार्थी इतने शरारती होते थे कि उत्तर के आरंभ में प्रश्न को ही तोड़ मरोड़कर दोहरा देते थे और फिर किसी फिल्म की स्टोरी लिख देते थे। कुछ लोग ज्यादा पन्ने भरने के लिए एक-एक लाइन छोड़कर बड़ा-बड़ा लिखते थे। आज भी ऐसे कई परीक्षार्थी मिल जाएंगे तो उत्तर पुस्तिका को भरने और सजाने में महारत रखते हैं। इन्होंने भले ही सभी प्रश्नों के जवाब गलत दिये हों पर इनकी प्रस्तुति ऐसी होती है कि परीक्षक बिना नंबर दिये नहीं रह पाता। इसलिए ऐसे परीक्षार्थी भी बड़ी संख्या में उत्तीर्ण हो जाते हैं। जब यह मुसीबत बड़ी हुई तो इसका काट ढूंढी गई। परीक्षाओं में वस्तुनिष्ठ सवाल ज्यादा पूछे जाने लगे। इसकी जांच में भी धांधली हुई तो ओएमआर शीट का चलन प्रारंभ हुआ। कापियां जांचने का काम कम्प्यूटर के हाथों में चला गया। इंसानों की विश्वसनीयता पर यह पहला बड़ा हमला था। परीक्षार्थियों के साथ-साथ यह परीक्षक और उत्तर पुस्तिकाओं को जांचने वालों की योग्यता और नीयत को कलंकित करने वाला था। इसलिए राजनीति की पाठशाला को इस परिवर्तन से मुक्त रखा गया। यहां आज भी वर्णनात्मक शैली ही अपनाई जाती है। लोग आज भी अल्लम-गल्लम लिखकर पास हो जाते हैं। ऐसे परीक्षार्थी को उत्तर पुस्तिका को सजाना खूब आता है। भाजपा के आरोपपत्र का भी यही हाल है। दरअसल, पिछले एक दशक से यह पार्टी केवल नेहरू-गांधी पर ही रिसर्च कर रही है। खुद अपने काम-काज पर वह किसी भी सवाल का जवाब नहीं देती। वह भूल जाती है कि यह भी सरकार की नैतिक जिम्मेदारी है कि वह जनता के सवालों का जवाब दे। इसलिए जब आरोप पत्र तैयार करने की बात आई तो नए सिरे से मंथन शुरू करना पड़ा। सबकुछ लिख लेने के बाद भी वह ज्यादा प्रभावकारी नहीं लग रहा था। तब उसमें कार्टून और कैरीकेचर डाले गए। जब इससे भी बात नहीं बनी तो आरोप पत्र पेश करने वाले बड़बोले ने कहा कि आरोप यहीं खत्म नहीं हो जाते। जब उनकी सरकार आएगी तो वो घोटाला करने वालों को उलटा लटकाकर फिर सीधा करेंगे। इसका मतलब चाहे जो भी होता हो, जनता को इस तरह के डायलॉग बी-ग्रेड की फिल्मों में ही सुनने को मिलते हैं। देश की नब्ज समझने का दावा करने वालों को, काश! पता होता कि बी-ग्रेड फिल्मों को बी-ग्रेड कहते ही इसलिए हैं कि उसके ज्यादा लेवाल नहीं होते। उनका ऐसा कहना, कांग्रेस के इन आरोपों की ही पुष्टि करता है कि ईडी और आईटी लोगों को उलटा लटकाती हैं। ऐसा तो फिल्मों में विलेन करता है। फिर अंजाम क्या होता है, सब जानते हैं।
Gustakhi Maaf: सरकार के खिलाफ भारी भरकम आरोपपत्र
