-दीपक रंजन दास
कुछ लोगों को सफलता हजम नहीं होती. किसी को दस्त लग जाते हैं तो कोई उलटियां करने लगता है। वैसे भी प्रवचनकारों का उद्देश्य श्रोताओं को रिझाना होता है। वैसे भी इन पंडालों में लगने वाली भीड़ में से बहुत कम लोगों की रुचि धर्मज्ञान प्राप्त करने की होती है। किसी को धर्म ही समझना होता तो इसके लिए भगवत-गीता के एक दो श्लोकों को समझ लेना ही काफी होता। धर्म का सीधा सादा अर्थ है कत्र्तव्य। वैसे भी कई प्रवचनकार कथानक से बहुत दूर निकल जाते हैं। इससे धर्म की मूल भावना आहत होती है। वो नहीं समझते कि किसी की लकीर छोटी कर अपनी लकीर बड़ी नहीं की जा सकती। उसका माप वही बना रहता है। अपनी लकीर को बड़ा करने से ही वह बड़ी हो सकती है। पर प्रवचनकारों को इससे क्या। वो तो मदारी हैं, भीड़ इक_ा करते हैं। पौराणिक कथाओं या प्राचीन अलिखित इतिहास को झूठ नहीं कहा जा सकता। पर ऐसा भी नहीं है कि यह पूरा का पूरा सच है। इनमें से कई बातों को केवल समझना होता है। सामान्य धारणा है कि ब्राह्मण का बेटा ब्राह्मण, क्षत्रिय का बेटा क्षत्रिय तो शूद्र का बेटा शूद्र होता है। यही परपाटी चली आ रही है। कथाओं में उल्लेख मिलता है कि कामधेनु चुराने और फिर पिता जमदग्नि की हत्या के अभियोग में परशुराम ने 21 बार पृथ्वी को क्षत्रिय शून्य कर दिया। जब पहली बार क्षत्रियों का पूरा नाश हो गया तो वो दोबारा कहां से आ गए? जाहिर है कि जाति या धर्म का जन्म से कोई सीधा रिश्ता नहीं था। यह भी उल्लेख मिलता है कि पिता की आज्ञा पर परशुराम ने माता की हत्या कर दी और फिर पिता से वरदान में मां का जीवन मांग लिया। साफ है कि पिता जमदग्नि महाज्ञानी और सिद्ध पुरुष थे। ऐसा व्यक्ति पुत्र को माता का वध करने की आज्ञा कैसे दे सकता है? इतना ईष्र्यालु कैसे हो सकता है? ऐसे में केवल परशुराम को महान सिद्ध करने के लिए कार्तवीर्य अर्जुन या सहस्रार्जुन को अपमानित करने या नीचा दिखाने की कोई जरूरत नहीं थी। जिसे जिसको पूजना है वह उसे पूजे। वैसे भी इन महापुरुषों को केवल पूजा ही जा सकता है, उनके जैसा बन पाने की संभावना दूर-दूर तक नहीं है। वीरता की बात करें तो सहस्रार्जुन स्वयं महाप्रतापी थे। उन्हें भगवान विष्णु के सुदर्शनचक्र का अवचार माना जाता है। सूर्य ने उनसे तेज की भिक्षा मांगी थी। तुलसीकृत रामायण के बालकांड में स्वयं परशुराम ने भ्राता लक्ष्मण से कहा था कि उन्होंने सहस्रबाहु की भुजाओं का छेदन किया है। फिर एक प्रवचनकार को कैसे यह हक जाता है कि वह सहस्रबाहु जैसे दिव्य पुरुष का अपमान करे। ऐसे लोगों के कारण ही हिन्दू धर्म कलुषित हुआ है, कमजोर हुआ है। सब अपने-आप को श्रेष्ठ बताने के चक्कर में दूसरों के अपमान की धृष्टता करते हैं। इसका परिणाम पूरा समाज भोगता है।
Gustakhi Maaf: क्यों जरूरी है किसीके आराध्य का अपमान
