-दीपक रंजन दास
फर्जी खबरों पर रार मचाने वाले तमाशबीन तो बहुत देखे थे पर ऐसी बेहिस, बेशर्म जनता पहले कभी नहीं देखी। उनकी आंखों के सामने एक आदमी हाथ में चापड़ लिये एक किशोरी को काटता रहा और वो वीडियो बनाते रहे। नर-पिशाच इतने में ही नहीं माना, वह लहूलुहान किशोरी को बालों से पकड़कर घसीटता रहा और लोग तमाशा देखते रहे। मीडिया रिपोट्र्स में कहा गया कि यह घटना थाने से लगभग एक किलोमीटर दूर हुई। लोग नाराज हैं कि पुलिस नहीं पहुंची। लोगों को इस बात का भी मलाल है कि बाल आयोग ने मामले की अब तक सुध नहीं ली है। इन लोगों से पूछा जा सकता है कि वे खुद वहां क्या कर रहे थे? वो ठल्ले खड़े एक किशोरी पर जानलेवा हमला होते देख रहे थे। उनमें इतनी भी मर्दानगी नहीं बची थी कि बीच बचाव कर इस पैशाचिक कृत्य को रोकते। लोग तो जानवरों और मवेशियों पर होते अत्याचार के खिलाफ भी खड़े हो जाते हैं फिर इस किशोरी के बचाव में कोई क्यों नहीं आया? इसका जवाब मौजूदा सामाजिक मान्यताओं में छिपा हुआ है। आरोपी ओमकार तिवारी मसाला दुकान का मालिक है। किशोरी उसकी दुकान पर काम करती थी। दुकानदार की प्रतिष्ठा उसके यहां काम करने वाले नौकरों से तो ज्यादा होनी ही चाहिए। इस आक्रोश की असली वजह क्या थी, इसे जानना यहां जरूरी नहीं है। किशोरी का अपराध चाहे जो भी रहा हो, किसी पर इस तरह का हमला करने की इजाजत देश का कानून नहीं देता। कबीलाई संस्कृति में भी पहले पंचायत फैसला सुनाती है तब जाकर किसी को दंड दिया जाता है। दरअसल, जिसे हम मोहल्ला या समाज कहते हैं, वह तमाशबीनों की भीड़ मात्र है। वह आपको ज्ञान तो दे सकती है पर आपकी मदद के लिए कभी एक तिनका भी नहीं उठाएगी। कोई फर्क नहीं पड़ता कि पीडि़त किसी खुली सड़क पर है या किसी एकांत स्थल में। वह जहां भी है, अकेली ही है। एकांत में प्रताडि़त होने का तो फिर भी एक फायदा है कि वहां बेइज्जती का तमाशा नहीं बनता। कोई वीडियो वायरल नहीं होता। ये जो भीड़ वहां खड़ी थी, उसने वीडियो भले ही बना लिया हो, पर अदालत में उसकी गवाही कराने में पुलिस के पसीने छूट जाएंगे। लोग कानून व्यवस्था पर सवाल तो उठा सकते हैं पर उसे सुधारने में योगदान नहीं करेंगे। वैसे भी, महात्मा गांधी की अहिंसा का मजाक उड़ाने वालों को तो इस घटना से आनंदित होना चाहिए। उनके लिए तो हिंसा जायज है। वो नहीं मानते कि हिंसा धर्म-अधर्म नहीं देखती। वह नहीं समझते कि जिसके हाथों में ताकत होगी, वही हिंसक हो जाएगा। हमें समझना होगा कि हिंसा किसी मजहब, किसी खास किस्म के भोजन या किसी जीवन शैली से नहीं आती। वह सोच से पैदा होती है। श्रेष्ठता के घमंड से इसकी उत्पत्ति होती है फिर चाहे हिंसा घरेलू हो या कौमी, क्या फर्क पड़ता है?
Gustakhi Maaf: हद हो गई बेशर्म तमाशबीनी की




