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दुर्ग विधानसभा: ‘अघोषित समझौते’ और ‘कमजोर’ प्रत्याशी का दर्द…. भाजपा के जख़्म कुरेद रहा कांग्रेसी पंजा

By @dmin Published September 23, 2021
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बीजेपी का दावा- 76 हजार से ज्यादा कार्यकर्ताओं ने थामा पार्टी का दामन
बीजेपी का दावा- 76 हजार से ज्यादा कार्यकर्ताओं ने थामा पार्टी का दामन
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घर बैठे नाराज कार्यकर्ताओं को अब कौन-सा लॉलीपॉप थमाएंगे नेता

दुर्ग। आजादी के बाद से लेकर अब तक कुछेक अपवादों को छोड़ दें तो दुर्ग विधानसभा की सीट कांग्रेस का अभेद्य गढ़ रही है। पहले जनसंघ और फिर भाजपा के पराजय के जख्मों को कांग्रेसी पंजा बेरहमी से कुरेदता रहा है। 2018 की ‘भयावह’ पराजय को अब भी स्वीकार नहीं कर पा रही भारतीय जनता पार्टी ने प्रदेश में चुनाव की तैयारियां शुरू कर दी है। ऐसे में छत्तीसगढ़ की उन गिनी-चुनी सीटों में एक दुर्ग शहर सीट भी है, जहां उसे फिर से ‘खड़ा’ होने की जद्दोजहद करनी पड़ रही है। यहां पार्टी के पास चेहरे तो बहुत है, किन्तु कथित ‘अघोषित समझौते’ का दर्द कार्यकर्ताओं को साल रहा है। कार्यकर्ताओं में इस पराजय की छटपटाहट है, पर उनके चेहरों पर बेबसी है। थोपे गए ‘कमजोर’ प्रत्याशी को पचाने का साहस उनमें नहीं है।

पहले वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोतीलाल वोरा और उसके बाद उनके पुत्र अरूण वोरा दुर्ग सीट पर पार्टी की जीत के मजबूत स्तम्भ रहे हैं। पिछले 2018 के चुनाव में अरूण वोरा ने सबसे बड़ी जीत हासिल की थी। उन्होंने भाजपा प्रत्याशी चंद्रिका चंद्राकर को 21 हजार से ज्यादा मतों से शिकस्त देकर इतिहास रचा। जबकि यह वह वक्त था, जब 15 साल की सत्ता और इस दौरान कराए गए तथाकथित विकास कार्यों को आधार बनाकर भाजपा चुनाव मैदान में थी। प्रदेश की ही तरह दुर्ग में भी भाजपा का सूपड़ा साफ हो गया। लेकिन इस पराजय के पीछे की कई कहानियों से भाजपा अब भी सबक लेती नहीं दिख रही है। महज चुनाव के वक्त कार्यकर्ताओं का महिमामंडन करने वाले नेता जीतने के बाद फिर कभी पीछे मुड़ नहीं देखते। कार्यकर्ताओं ने यह दर्द काफी वक्त तक झेला। ”चुना-मुर्रा खाएंगे, हेमचंद को जिताएंगे” का नारा देने वाले कार्यकर्ताओं ने देखा कि किस तरह चुनाव जीतने और महत्वपूर्ण पदों पर बैठने के बाद नेता पूंजीपतियों की गोद में जा बैठता है और कार्यकर्ता, पार्टी की बैठकों में दरी-चटाई बिछाने तक सीमित होकर रह जाते हैं।

भाजपा के जमीनी कार्यकर्ताओं को यह भी समझ में आया कि उनकी सुध ऐन चुनाव के वक्त ली जाती है और उनसे यह अपेक्षा की जाती है कि ऊपर से ‘थोपे’ गए प्रत्याशी को जिताने के लिए वे रात-दिन एक कर दें। पार्टी का प्रत्याशी जब चुनाव जीतता है तो अचानक ही ‘लाभ के सौदागरों’ की एक नई पौध सामने आ जाती है और नेता को चारों ओर से घेरकर अपना मतलब निकालने में जुट जाती है। इससे नेता और कार्यकर्ता के बीच दूरियां बढ़ती है और लगातार बढ़ती चली जाती है। छत्तीसगढ़ अलग राज्य बनने के बाद पार्टी की चुनावी प्रक्रियाओं को करीब से देखने वाले कार्यकर्ताओं को यह समझ नहीं आया कि जब बड़े नेताओं के स्वार्थ टकराते हैं तो पार्टी का प्रत्याशी क्यों चुनाव हार जाता है? मजे की बात है कि यह सब कुछ उस पार्टी में होता है, जिसे कैडर बेस और अनुशासिक पार्टी कहा जाता है। प्रदेश में सरकार बनाने के लिए भाजपा को एकजुट होने की दरकार है, किन्तु दुर्ग-भिलाई जैसे छोटे शहरों में जिस तरह से पार्टी कई धड़ों में बँटी नजर आती है, उसका सीधा-सीधा नुकसान भी चुनावी नतीजों के रूप में सामने आता है। ऐसे में सवाल यह है कि पार्टी के नाराज जमीनी कार्यकर्ताओं को इस बार वरिष्ठ नेता कौन सा लॉलीपॉप थमाकर मनाएंगे?

विपक्ष में भाजपा, संगठन भी कमजोर
दुर्ग क्षेत्र की बात करें तो प्रदेश की तरह यहां भी पार्टी विपक्ष में हैं। ऐसे में कार्यकर्ताओं को एक मजबूत संगठन की दरकार है, किन्तु विडंबना है कि यहां पार्टी का दायित्व ऐसे लोगों को सौंपा गया है, जिन्हें संगठन में काम करने का कोई अनुभव नहीं है। जिस पार्टी का संगठन कमजोर होता है, उसके जीतने की संभावना उतनी ही कम होती है। इस बात से यहां के वरिष्ठ नेता अनभिज्ञ हों, ऐसा भी नहीं है। फिर जानबूझकर संगठन को कमजोर करने का कुचक्र क्यों रचा जाता रहा है? गुट-विशेष द्वारा अपना प्रभुत्व स्थापित करने के चलते वे कार्यकर्ता हतोत्साहित होते हैं, जिन्हें सिर्फ पार्टी के झंडे से वास्ता है। भाजपा की चुनावी तैयारियों के बीच, पार्टी के नेताओं को यह भी देखना चाहिए कि अब भी दरी-चटाई बिछाने तक ही सीमित जमीनी कार्यकर्ताओं के जख्मों पर मरहम कैसे लगाई जाए?

पंजे के शिकंजे से कैसे निकले भाजपा
भाजपा के लिए अब सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह दुर्ग में पंजे के शिकंजे से कैसे निकले? दरअसल, यह पार्टी के लिए आसान भी नहीं है। दुर्ग क्षेत्र में नया नेतृत्व उभारना उतना ही दुष्कर है, जितना फिर से प्रदेश में सत्तारूढ़ होना। हेमचंद यादव के निधन के बाद हालात और ज्यादा दुरूह हुए हैं। उनकी अनुपस्थिति में 2018 में राज्यसभा सांसद सरोज पाण्डेय की समर्थक चंद्रिका चंद्राकर को विधानसभा का टिकट दिया गया था, किन्तु वे कांग्रेस प्रत्याशी के सामने बेहद कमजोर प्रत्याशी थीं। पार्टी के प्रादेशिक और शीर्ष नेतृत्व ने क्षेत्र में नया नेतृत्व सामने लाने की दिशा में कोई काम नहीं किया। ऐसे में अगले चुनाव की तैयारियां उसके लिए और भी ज्यादा मुश्किल है। जाहिर है कि इन परिस्थितियों में एक बार फिर ऐसा प्रत्याशी थोपा जा सकता है, जिसमें राजनैतिक व नेतृत्व क्षमता का अभाव हो।

तलाशना होगा नया प्रत्याशी
दुर्ग में भाजपा एक बार फिर नया प्रत्याशी तलाशने के मुहाने पर है। जबकि 2018 से पहले पार्टी की ओर से लगातार 5 बार हेमचंद यादव ने विधानसभा का चुनाव लड़ा। 1993 में पहली बार भाजपा ने छत्तीसगढिय़ा कार्ड खेलते हुए सामान्य प्रत्याशी अरूण वोरा के सामने पिछड़ा वर्ग के हेमचंद यादव को प्रत्याशी बनाया था, किन्तु तब पार्टी को पराजय का मुंह देखना पड़ा। उसके बाद हुए 3 विधानसभा चुनाव में हेमचंद यादव लगातार 1998, 2003 और 2008 के चुनाव में जीत दर्ज करते रहे। 2013 में पार्टी कार्यकर्ताओं की नाराजगी खुलकर सामने आई और इसी वजह से उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा। 2018 के चुनाव से पहले वे बीमार पड़ गए और इसी वजह से उनका निधन भी हो गया। ऐसे में पार्टी के समक्ष कोई बड़ा चेहरा नहीं था। नतीजतन तत्कालीन नगर निगम की महापौर चंद्रिका चंद्राकर को प्रत्याशी बनाया गया। बताते हैं कि कार्यकर्ता श्रीमती चंद्राकर को प्रत्याशी बनाए जाने से खुश नहीं थे, क्योंकि नगर निगम में उनका काम आशानुरूप नहीं था। बावजूद इसके उन्हें प्रत्याशी बनाकर चुनाव लड़वाया गया। नतीजतन कांग्रेस को यहां बड़ी लीड के साथ ऐतिहासिक जीत मिली।

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