दुर्ग। भाजपा की बस्तर चिंतन बैठक का अंत भले ही ‘थूक-चिंतन के साथ हुआ हो, किन्तु इस बैठक से कई अहम् फैसले निकले हैं। यदि पार्टी इन फैसलों पर अमल करती है तो अगले चुनाव में उसे फायदा हो सकता है। दरअसल, ढर्रे पर चली आ रही जिले की भाजपाई राजनीति को सही दिशा दिखाने के लिए यह जरूरी होगा कि चेहरे बदलने का प्रयोग अमल में लाया जाए। पुराने चेहरों को किनारे लगाने और नए चेहरों पर दांव लगाने के कुछ नुकसान भी संभव है, लेकिन सकारात्मक नजरिए से देखें तो इसका फायदा ज्यादा होगा। यदि वास्तव में पार्टी चेहरे बदलती है तो 6 सीटों वाले दुर्ग जिले में 5 नए चेहरे तलाशने की चुनौती होगी। अभी जिले की महज 1 सीट ही भाजपा के पास है।
बस्तर की चिंतन बैठक का फोकस प्रमुख रूप से 2023 के विधानसभा चुनाव पर रहा। कांग्रेस सरकार की कथित कमजोरियों को उजागर करना, जातिगत समीकरण, बतौर प्रत्याशी नए चेहरों को सामने लाना समेत कई ऐसे मसले रहे जिन्हें अगले चुनाव के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण माना जा सकता है। प्रदेश में भाजपा ने लगातार तीन विधानसभा चुनाव जीते, लेकिन 2018 का चुनाव पार्टी को बड़ा दर्द दे गया। 90 सीटों वाले छत्तीसगढ़ राज्य में उसे महज 13 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा। इसके विपरीत कांग्रेस को अभूतपूर्व बहुमत के साथ सरकार बनाने का जनादेश मिला। राजनीतिक व सामाजिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण दुर्ग जिले की 6 सीटों में से भाजपा को महज 1 सीट मिली। बाकी की 5 सीटों पर भाजपा के ज्यादातर प्रत्याशी बड़ी लीड से चुनाव हारे। भाजपाई चिंतन में इस पर कोई चर्चा हुई या नहीं, यह तो सामने नहीं आ पाया है, किन्तु हकीकत यह है कि गलत प्रत्याशी चयन और अति आत्मविश्वास पार्टी को ले डूबा। चिंतन बैठक इससे बचने की नसीहत देती नजर आई।
गौरतलब है कि दुर्ग जिले की भाजपाई राजनीति में लम्बे समय से कसैलापन आया हुआ है। तीन गुटों में बँटे पार्टी के कार्यकर्ता ‘निपटो-निपटाओ राजनीति का शिकार होते रहे हैं। कद्दावर नेता स्व. हेमचंद यादव के बाद भिलाई में दिग्गज नेता प्रेमप्रकाश पाण्डेय की पराजय इसी खेमेबाजी का नतीजा रही। जो दुर्ग कभी भाजपा का महत्वपूर्ण गढ़ हुआ करता था, वह इसी गुटबाजी के चलते कांग्रेस को गिफ्ट में मिल गया। विधायक, महापौर, जिला व जनपद पंचायत सब कुछ भाजपाई झोली से फिसलते चले गए। पूरा राजनीतिक परिदृश्य बदल गया, लेकिन गुटबाजी और पैतरेबाजी नहीं बदली। अब भी जिले में भाजपा के कार्यकर्ताओं को ‘इस गुट और ‘उस गुट के नाम से जाना जाता है। जो किसी गुट में नहीं है, वे अपने घरों में बैठे हैं। पार्टी के बस्तर चिंतन में इन घर बैठे लोगों से अपेक्षा की गई कि वे एक बार फिर सरकार बनाने के लिए जुट जाएं। मतलब, काम करना हो तो कैडर और सत्ता सुख भोगना हो तो नेताओं के आयातीत समर्थक।

यह है 6 सीटों का गणित
वर्तमान में पार्टी को जिन सीटों पर ज्यादा फोकस करने की दरकार है, उनमें पाटन, दुर्ग शहर, भिलाई नगर व दुर्ग ग्रामीण शामिल है। इनमें भी दुर्ग शहर सीट को छोड़ दें तो बाकी 3 क्षेत्रों में भाजपा को ज्यादा मशक्कत करनी होगी। पाटन सीट में सीएम भूपेश बघेल का विकल्प ढूंढना बेहद दुश्कर होगा। वहीं दुर्ग ग्रामीण सीट पर गृहमंत्री ताम्रध्वज को चुनौती देना भी आसान नहीं है। पाटन में 2018 में पार्टी ने मोतीलाल साहू को प्रत्याशी बनाया था, जो विधानसभा का चुनाव बड़े अंतर से हार गए। भाजपा को अब यहां नया प्रत्याशी उतारना होगा। दुर्ग ग्रामीण में ऐन वक्त में कांग्रेस ने प्रत्याशी बदलकर नतीजा अपने पक्ष में कर लिया था। भाजपा ने वहां जातिगत समीकरणों के मद्देनजर कांग्रेस के ताम्रध्वज साहू के मुकाबले जागेश्वर साहू को उतारा था, जो कभी कांग्रेस के नेता और मंत्री भी रहे। जागेश्वर साहू पर भाजपा पहले भी प्रयोग करती रही है। उन्हें इससे पहले जिला भाजपा का अध्यक्ष फिर वैशाली नगर से भी प्रत्याशी बनाया था। भाजपा को यहां भी दमदार प्रत्याशी की तलाश करनी होगी। अहिवारा में पार्टी ने सांवलाराम डहरे को उतारा था, वे भी भारी मतों से चुनाव हारे। यहां के विधायक गुरू रूद्र कुमार, भूपेश केबिनेट में मंत्री हैं। एससी आरक्षित इस सीट में भी पार्टी को नई खोज करनी होगी। दुर्ग शहर सीट पर पिछली दफा तत्कालीन महापौर चंद्रिका चंद्राकर को पार्टी ने प्रत्याशी बनाया था, लेकिन शहर के प्रति उनका महापौर रहते ही कोई योगदान सामने नहीं आ पाया। ऐसे में उन्हें विधानसभा का टिकट देना ही सवालिया निशान छोड़ रहा था। यह भविष्यवाणी पहले ही कर दी गई थी कि दुर्ग शहर सीट कांग्रेस जीत रही है। न•ार सिर्फ इस बात पर थी कि हार-जीत का अंतर कितना होगा।




