-दीपक रंजन दास
एक तरफ निर्वाचित राज्य सरकारें हैं तो दूसरी तरफ राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त प्रतिनिधि. दोनों की अपनी-अपनी शक्तियां हैं और अपनी-अपनी मर्यादायें. पर जब इनमें से कोई भी एक पक्ष ढीठ हो जाए तो क्या किया जाए? यह ठीक वैसा ही है जैसे वैवाहिक विवादों की सूरत में वर-वधु तथा परिजनों की मध्यस्थता. बातों की गुंजाइश तो होती है पर जब कोई एक पक्ष एजेंडा लेकर बैठ जाए तो अक्सर इसका कोई हल बातचीत द्वारा नहीं निकल पाता. अंततः बात अदालतों तक पहुंच ही जाती हैं. कुछ ऐसा ही हो रहा था पिछले कुछ सालों से. राज्यपाल एक निर्धारित प्रक्रिया का पालन करने में चूक रहे थे. इसकी वजह से राज्य की सरकारों को अपनी योजनाओं के क्रियान्वयन में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. लोकतंत्र में कोई भी निर्वाचित सरकार एक एजेंडा के साथ सत्ता में आती है. मतदाता इसी के आधार पर सरकारों को चुनते हैं. जनता का फैसला सही था या गलत इसका फैसला करने का अधिकार किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता. किसी भी निर्वाचित सरकार के पास योजनाओं को लागू करने के लिए असीमित वक्त नहीं होता. पांच साल के कार्यकाल का पहला साल तो योजना बनाने में ही निकल जाता है. इसके बाद इसे विधानसभा में पारित करवाना होता है. पारित हो गया तो इसे लागू करने के लिए राज्यपाल को भेजा जाता है. राज्यपाल अगर सहमत नहीं होते तो उन्हें पूरा अधिकार है कि वे राज्य शासन को चर्चा के लिए आमंत्रित करे या फिर अपनी टिप्पणी के साथ उसे सरकार को लौटा दे. सरकार को भी पूरा अधिकार है कि वह विधेयक को रोकने के कारणों पर सवाल खड़ा करे. पर अगर बातचीत का सिलसिला यहीं दम तोड़ दे तो सरकार के पास ज्यादा विकल्प नहीं रह जाते. यही कारण है कि देश की सर्वोच्च अदालत को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा. सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि निर्वाचित सरकारें राज्यपालों की मर्जी पर नहीं चल सकतीं. संविधान के अनुसार राज्यपाल के पास चार विकल्प होते हैं- बिल को मंजूरी देना, मंजूरी रोकना, राष्ट्रपति के पास भेजना या विधानसभा को पुनर्विचार के लिए लौटाना. लेकिन अगर विधानसभा दोबारा वही बिल पास करके भेजती है, तो राज्यपाल को उसे मंजूरी देनी ही होगी. यही कारण है कि राज्यपाल विधेयकों पर विचार करने के बजाय उसे ठंडे बस्ते में डाल देते हैं. सालीसिटर जनरल तुषार मेहता भी सही कहते हैं कि अगर राज्यपाल विधेयकों पर विचार नहीं कर रहे हैं, तो राजनीतिक समाधान हैं. ऐसे कई उदाहरण हैं जहां मुख्यमंत्री राज्यपाल से मिलते हैं, प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति से मिलते हैं और समाधान निकल आता है. दशकों से, विवादों को सुलझाने के लिए यही प्रथा अपनाई जाती रही है. राज्यपाल के लिए समय-सीमा तय करने वाला कानून बनाने के लिए राज्य केवल अनुरोध कर सकते है, अदालत के जरिए ऐसा नहीं किया जा सकता. कैसे कहें कि वक्त बदल चुका है?
Gustakhi Maaf: जब एक पक्ष ढीठ हो तो उपाय क्या है?




