-दीपक रंजन दास
पिछले कुछ सालों में नेताओं की भाषा ऐसी हो गई है कि शर्म आने लगी है. एक तरफ देश सनातन, वैभवशाली अतीत, विश्वगुरू और न जाने किन-किन विषयों की बातें कर रहा है तो दूसरी तरफ उसके नेताओं के बोल सुर्खियां बटोर रहे हैं. एक बात चली थी सड़कों को सुन्दर बनाने की. लालू यादव ने कभी कहा था कि वे पटना की सड़कों को हेमा मालिनी के गालों की तरह बना देंगे. लालू का अपना अंदाज था. तब लोगों ने इसे एक्ट्रेस की तारीफ के रूप में लिया था. 3 साल पहले महाराष्ट्र के एक मंत्री ने भी ऐसी ही बात कही थी. फिर भाजपा के एक वरिष्ठ नेता विधूड़ी ने हाल में कह दिया कि दिल्ली की सड़कों को प्रियंका के गाल जैसा बना देंगे. इसपर बवाल भी मचा. अब बंगाल के एक भाजपा नेता ने तृणमूल के एक नेता को सड़ा हुआ आलू कह दिया. कोई कांग्रेस को किसानों का खून पीने वाला दानव बता रहा है तो कोई कांग्रेस को खान मार्केट बता रहा है. कोई महिला मुख्यमंत्री के बारे में कह रहा है कि इसने बाप बदल लिया. यह किस तरह की भाषा है? क्या इस अपसंस्कृति के लिए भी पश्चिमी सभ्यता जिम्मेदार है? नहीं! दरअसल, गंदगी लोगों के दिमाग में है. वो पूरी कोशिश करते हैं कि उनके मनोभावों को कोई ताड़ न सके पर समय आने पर जुबान फिसल ही जाती है. शेर की खाल ओढ़ा सियार भी मौका मिलते ही हुआ-हुआ करने लगता है. यह राजनीति की मजबूरी हो सकती है कि कहीं का ईंट कहीं का रोड़ा जोड़कर भानुमती का कुनबा खड़ा करे पर यदि सबसे बड़ी पार्टी का यही हाल रहा तो देश में तमीज नाम की कोई चीज नहीं रह जाएगी. पहले यह नेताओं की भाषा में आएगी और फिर धीरे-धीरे स्कूली पाठ्यक्रम में भी शामिल हो जाएगी. बच्चे तो अभी से पूछने लगे हैं, ‘पापा, सड़कों को हिरोइन की गाल जैसा क्यों बनाया जाएगा?’ पापा तो चुप ही रहते हैं पर बड़ा भाई बोल पड़ता है, ‘नेता इनकी चुम्मी लेंगे.’ एक बात तो साफ है कि नेताओं की या तो जुबान फिसल रही है या फिर वे जानबूझकर मीडिया को मसाला दे रहे हैं. अखबार न हुआ, एमडीएच का मसाला हो गया. यह एक बेहद खतरनाक स्थिति है जब बेकार की बातें मीडिया में छाई हुई हैं. एक जमाना था जब ऐसी बातें केवल फिल्मी पत्रिकाओं में चला करती थीं. इसे गॉसिप कॉलम ही कहा जाता था. लोग उसे पढ़कर केवल आनंद लेते थे क्योंकि कलाकार कानून नहीं बनाते. पर अब जो लोग इस तरह की बातें कर रहे हैं वो कानून बनाने वाले लोग हैं. इन लोगों को जनता चुन कर विधानसभा और लोकसभा में भेजती है. फैसला तो जनता को ही करना होगा कि वह धीर गंभीर समझदार लोगों को अपना प्रतिनिधि बनाकर इन सदनों में भेजती है या फिर मसखरों और बिगड़े नवाबों को.
