-दीपक रंजन दास
अब बच्चे स्कूल भले ही छह दिन जाएं पर पढ़ाई केवल पांच दिन ही होगी। छठवा दिवस बैगलेस होगा। अर्थात बच्चे बिना बैग के स्कूल जाएंगे और विभिन्न गतिविधियों में सम्मिलित होंगे। 70 और 80 के दशक में जिन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की है, उन्हें शायद याद हो कि उन दिनों एसयूपीडब्लू के नाम से एक पीरियड होता था। सप्ताह में एक या दो दिन सोशली यूजफुल प्रोडक्टिव वर्क होता। अर्थात पढ़ाई तो प्रतिदिन होती थी पर बच्चों को रिलैक्स करने के लिए कभी गेम्स पीरियड, कभी योगा पीरियड तो कभी एसयूपीडब्लू पीरियड दिया जाता था। पर 90 के दशक में प्री-प्रायमरी स्तर पर एक बड़ा बदलाव आया। शिक्षण के अनगिनत टुकड़े कर लिये गये। इन सबका अलग-अलग फैंसी नाम रख दिया गया। इसकी शुरुआत हुई बच्चे के प्रोजेक्ट फाइल से। इसमें वह अपनी, अपने भाई-बहनों की और अपने माता-पिता की तस्वीरें चिपका कर स्कूल ले जाने लगा। कहा गया कि इससे बच्चे अपने परिवार से जुड़े पाएंगे। इसी तरह सप्ताह के अलग-अलग दिन अलग-अलग रंग का नाश्ता लाने का भी नियम बनाया गया। कहा गया कि इससे बच्चा सभी तरह का भोजन करने के लिए बाध्य होगा। इससे उसका पोषण स्तर सुधरेगा। एक और फंडा आया जीरो पीरियड। मान लिया गया कि इस पीरियड में बच्चा अपनी पसंद के अनुरूप कुछ नया सीख लेगा। बैगलेस सैटरडे इसी का विस्तार है। शनिवार के लिए गतिविधियों की एक लंबी फेहरिस्त भी तैयार की गई है। इसके तहत बागवानी, रंगोली, मेहंदी, थाल सजाओ, सलाद सजाओ से लेकर विभिन्न प्रकार के खेलकूद और योग आदि को सूचीबद्ध किया गया है। बच्चे शनिवार को ही ड्राइंग पेंटिंग भी करेंगे। श्रेष्ठ कृतियों को स्कूल के बोर्ड पर प्रदर्शित किया जाएगा। योजना बहुत अच्छी है पर इसके क्रियान्वयन को लेकर थोड़ा संदेह है। पहली बात तो यह कि खेलकूद हो या योग, ये कोई सप्ताह में एक दिन करने की चीज नहीं है। जिसे खेलने का शौक है वह रोज खेलता है। जिसे योगा करना है वो भी रोज करता है। जिसे पढऩे का शौक है, वो पढ़ाई के इतर की गतिविधियों में रुचि नहीं लेता। सबसे बड़ी बात यह कि क्या शिक्षकों की फौज इसके लिए तैयार है? कुछ शिक्षक जरूर इस कांसेप्ट को समझ कर उसके अनुरूप योजना तैयार कर लेंगे। उनकी कोशिशें रंग भी लाएंगी। पर अधिकांश स्कूलों में गुरूजी बच्चों को एक्टिविटी में लगाकर दीगर काम में जुट जाएंगे। जिन लोगों का कभी स्कूल की नौकरी से वास्ता नहीं पड़ा, उन्हें बता दें कि शिक्षक कोल्हू का बैल होता है। वह निर्देशों का पालन करते-करते ही इतना थक जाता है कि बच्चों को पढ़ाना-लिखाना भी उसके लिए एक बोझ जैसा हो जाता है। क्या टीचरों का भी बोझ कम करने की कोशिश की गई है? अब तक तो ऐसा कोई भी इशारा नई शिक्षा नीति में नहीं देखने को मिला। अच्छा होता शनिवार को अवकाश घोषित कर देते। ईंधन बचता, प्रदूषण कम होता।