प्रयागराज (एजेंसी)। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह संस्कार है। इसे दस रुपये के स्टांप पर निष्पादित एकतरफा घोषणा पत्र के आधार पर भंग नही किया जा सकता। इसके लिए हिंदू विवाह अधिनियम के तहत निर्धारित प्रावधानों का पालन करना जरूरी है। यह महत्वपूर्ण फैसला न्यायमूर्ति सुभाष विद्यार्थी ने पारिवारिक न्यायालय द्वारा 14 साल से अलग रह रही पत्नी को भरण पोषण देने के आदेश के खिलाफ कथावाचक पति विनोद कुमार उर्फ संतराम की ओर से दाखिल पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए सुनाया।
मामला श्रावस्ती जिले का है। याची पति को पारिवारिक न्यायालय द्वारा प्रतिवादी पत्नी को 2200 रुपये भरण पोषण प्रतिमाह अदा करने का आदेश दिया गया था। पति ने इस आदेश को चुनौती देते हुए दलील दी कि प्रतिवादी पत्नी ने पारिवारिक न्यायालय में दाखिल भरण पोषण की अर्जी में यह तथ्य छुपाया है कि प्रतिवादी पत्नी और उसके बीच आपसी सहमति से इलाकाई रीति रिवाज के मुताबिक समाज के सामने वर्ष 2005 में विवाह विच्छेद हो गया है।
इसके बाद वर्ष 2008 में उसने एक अन्य महिला से शादी कर ली है, जिससे उसे तीन बेटे हैं। 14 साल बाद दाखिल अर्जी में उसने इस बात का खुलासा भी नही किया कि बिना कारण पति से 14 साल अलग रहने के दौरान उसने किन श्रोतों से अब तक अपना जीवन यापन किया। पारिवारिक न्यायालय में हुई जिरह के दौरान पति ने बताया कि उसके तीन विवाह हो चुके हैं। पहला बाल विवाह था। बाल विवाह वाली मुकदमेबाजी वर्ष 2002 में खत्म हुई। दूसरी वाली पत्नी से 2005 संबंध विच्छेद हुआ। इसके बाद 2008 में तीसरी शादी की।
पति की दलीलें सिरे से खारिज
हाईकोर्ट ने पति की सभी दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया। कोर्ट ने कहा कि हिंदू विवाह संस्कार है। इसे दस रुपये के स्टांप पर निष्पादित एकपक्षीय घोषणा पत्र के जरिए भंग नही नही किया जा सकता। इसलिए मौजूदा मामले में याची और प्रतिवादी का विवाह भंग नहीं माना जा सकता। बिना विधिक विवाह विच्छेद के अन्य महिला के साथ रहना और उससे तीन संतानों का होना प्रतिवादी के अलग रहने का अहम कारण माना जाएगा। इसके अलावा याची द्वारा बताए गए बाल विवाह और उसमें हुई मुकदमेबाजी का कोई दस्तावेजी प्रमाण न होने के कारण यह भी नहीं कहा जा सकता कि प्रतिवादी उसकी दूसरी पत्नी है।