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Gustakhi Maaf: पार्टी बेशक बड़ी, पर नेता बिना कुछ भी नहीं

By Om Prakash Verma Published March 5, 2024
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Gustakhi Maaf: अकूत कमाई और क्वालिफिकेशन में क्राइम
Gustakhi Maaf: अकूत कमाई और क्वालिफिकेशन में क्राइम
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-दीपक रंजन दास
जब-जब चुनाव आता है, जीतने योग्य प्रत्याशियों की बातें होने लगती हैं. सभी पार्टियां ऐसे नेताओं की सूची तैयार करने लगती हैं जो अपने दम-खम पर जीत सकते हों. इसके साथ ही ऐसे नेताओं को भी भाव मिलने लगता है जो जीतने की क्षमता तो नहीं रखते पर इतने वोट जरूर काट सकते हैं कि जीतने वाला प्रत्याशी हार जाए. इन्हें हम ‘घर का भेदी लंका ढाए’ वाली श्रेणी में रख सकते हैं. ऐसे में एक सवाल उठता है कि पार्टी बड़ी है या नेता. पिछले कुछ दशकों में बार-बार जनता को यह अहसास कराया गया है कि पार्टी किसी भी नेता से बड़ी होती है. जैसा पार्टी चाहती है, नेता को वैसा ही करना चाहिए. इसलिए यह चलन भी प्रारंभ हो गया कि पार्टी जिसे भी खड़ा कर दे, वही जनप्रतिनिधि बन जाता है. इससे ऐसे जनप्रतिनिधि चुनकर आ जाते हैं जो वास्तव में पार्टी के प्रतिनिधि होते हैं. कहना मुश्किल है कि यह लोकतंत्र को स्वस्थ बनाता है या फिर उसे कमजोर करता है, पर यही आज का चलन है. पर बारीकी से देखें तो इसमें भी एक भेद है. बिना मोदी के नेतृत्व के भारतीय जनता पार्टी की कल्पना करें. पार्टी खुद मोदी की गारंटी की बात करती है. अर्थात् पार्टी को छोटी या बड़ी उसके नेता बनाते हैं. एक बार पार्टी बड़ी हो जाती है तो फिर वह जिसपर उंगली रख दे, वही नेता बन जाता है. यह सवाल आज इसलिए कि अंतागढ़ के एक नेता ने फिर भाजपा प्रवेश किया है. उन्होंने इससे पहले भी भाजपा प्रवेश किया था पर जब वहां खास भाव नहीं मिला तो निर्दलीय हो गये थे. वो कहते हैं कि वो अपनी ताकत दिखाने के लिए भाजपा से बाहर गए थे. उनका दावा है कि उनकी वजह से कांग्रेस प्रत्याशी हार गया. हालांकि, उनका यह दावा आंकड़ों से मेल नहीं खाता. उन्हें मिले पूरे वोट भी कांग्रेस को मिल जाते तो नतीजा वही रहता. अब उन्होंने एक बार फिर से भाजपा प्रवेश कर लिया है. दरअसल, भाजपा के इसी गणित ने कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों की हवा निकाल रखी है. शेष दल पार्टी के भीतर सिर उठाने वालों को कुचलने में लगे हैं. पार्टियों में आपसी सिरफुटौव्वल की खबरें भी आए-दिन आती रहती है. जबकि भाजपा चुपचाप बैठकर उन लोगों की शिनाख्त कर रही है जिनकी अपने-अपने क्षेत्र पर अच्छी पकड़ है. ऐसे असंतुष्टों के लिए भाजपा के दरवाजे खुले हुए हैं. ये असंतुष्ट उस जड़ी-बूटी की तरह काम करते हैं जो मिलते तो मुफ्त हैं पर रोगी को आवश्यक राहत पहुंचा देते हैं. कहते हैं, भाजपा ने उतने नेता तैयार नहीं किये, जितने उसने दूसरे पार्टियों से तोड़ लिये. यही कॉरपोरेट वर्ल्ड का चलन है. फ्रेशर्स को रखकर उनपर वक्त और ऊर्जा जाया करने से अच्छा है कि अनुभवी लोगों को बेहतर पैकेज देकर उन्हें अपनी तरफ कर लिया जाए. यही कॉरपोरेट कल्चर है.

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