-दीपक रंजन दास
नशे का इतिहास भी मानव के इतिहास जितना ही पुराना है. आदिकाल से मनुष्य किसी न किसी प्रकार का नशा करता आ रहा है. सुरा, गांजा, भांग का उल्लेख पुराणों में भी मिलता है. सर्पदंश का नशा भी भारत के लिए कोई अनजान विषय नहीं है. आदिवासी समाज भी महुआ, ताड़ी, सल्फी, भांग, गांजा का नशा करता रहा है. भारतीय समाज में तम्बाकू का प्रवेश बहुत बाद में हुआ. अकबर के शासन काल में इसका पहली बार उल्लेख मिलता है. अकबर को वर्नेल नाम के पुर्तगाली ने तंबाकू और एक सुन्दर जड़ाऊ चिलम भेंट की थी. इसके साथ ही भारत में सन् 1609 के आस-पास तम्बाकू पीने की शुरुआत हुई. पर धूम्रपान और मद्यपान के साथ एक गंध जुड़ी हुई है. यह नशा गुपचुप नहीं किया जा सकता. पीने वाले के पास जाते ही उसके नशा करने के बारे में पता चल जाता है. हाल के वर्षों में गंध हीन शराब और इलेक्ट्रॉनिक सिगरेट का चलन प्रारंभ हुआ. लोग नशा तो करना चाहते हैं पर यह नहीं चाहते कि लोगों को इसका पता लगे. नशे के साथ जुड़े इसी कलंक का फायदा उठाते हैं ड्रग्स बेचने वाले. वे लोगों को ऐसा नशा उपलब्ध कराते हैं जो उन्हें तो गंभीर नुकसान पहुंचाए पर किसी को कानों-कान खबर न हो कि वह नशे में है. दुःखद यह है कि इस जानलेवा काले कारोबार में दवा बनाने और बेचने वाला उद्योग खुद शामिल है. इनकी कृपा से युवाओं तक वो दवाइयां भी पहुंच जाती हैं जिनका उपयोग स्वयं चिकित्सक भी बहुत सोच समझकर सीमित अवधि के लिए करते हैं. हाल ही में पुलिस ने गरियाबंद जिले में एक युवक को पकड़ा है. उसके पास एक खास दवा के कई पत्ते मौजूद थे. डाक्टर के पर्चे पर 35-40 रुपए में मिलने वाले एक स्ट्रिप को वह 300 रुपए में बेच रहा था. इनमें से एक गोली का नशा 24 घंटे तक रहता है. नशा करने वाले के बेहद करीब रहने वालों को भी नहीं पता लगता कि वह नशे में है. युवक द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक वह रिटेल में बिना डाक्टरी पर्चे के ये पत्ते 100 रुपए प्रति स्ट्रिप की दर पर खरीदता है. इस मामले का एक और पहलू भी है. रोजगार का कोई ढंग का साधन हो या न हो, इससे किसी की जरूरतें कम नहीं हो जातीं. जब रोजगार का एक नंबर का साधन समाज छीन ले तो व्यक्ति में दो नंबर के काम करने का साहस खुद-ब-खुद पैदा हो जाता है. अब तक मेहनत से दो रोटी कमाने वालों के खिलाफ पिछले कुछ समय से सामाजिक लामबंदी देखी जा रही है. नए दौर के वाहनों ने गाड़ी मैकानिकों का काम छीन लिया है. मांस, मछली खाने वाले भी अब दुकानें छांटने लगे हैं. यह भेदभाव फल, फूल और सब्जी मंडी में भी देखा जा रहा है. इस खामख्याली के नतीजे तो भोगने ही होंगे.
Gustakhi Maaf: दवाइयां ले रही जान, हम दारू के पीछे पड़े
