-दीपक रंजन दास
पता नहीं यह फिकरा कहां सुना था, शायद किसी ने मस्ती में कहा था. ऐसी बातें अकसर चाय की दुकान पर या पान ठेले पर ही सुनने को मिलती हैं. एक तरफ भारत को 2047 तक विकसित राष्ट्र बनाने की बातें हो रही हैं और दूसरी ओर देश बातों के बवंडर पर चल रहा है. गुस्से में लोगों के मुंह से कुछ का कुछ निकल रहा है और कुछ लोग उनका मुंह पकडऩे में लगे हुए हैं. ताजा मामला कर्नाटक का है. कर्नाटक देश का दूसरा सबसे बड़ा जीएसटी एकत्र करने वाला राज्य है. बावजूद इसके केन्द्र उसकी जरूरतों के मुताबिक फंड देने में आनाकानी करता रहा है. ऐसे में गुस्सा तो आएगा ही. गुस्से में मुंह से कुछ का कुछ निकल जाना एक बेहद सामान्य सी बात है. गुस्से में माता-पिता अपने ही बच्चों को पीट-पीट कर मार डालने की बातें कह जाते हैं पर उनका ऐसा कोई इरादा होता नहीं है. गुस्से में कही गई ऐसी बातों को कोई याद भी नहीं रखता. कर्नाटक के उप मुख्यमंत्री के भाई ने केन्द्र पर अपनी भड़ास निकाली थी. उन्होंने कहा था कि उन्हें अपने कन्नडिगा होने पर गर्व है. केन्द्र राशि आवंटन के मामले में कर्नाटक के साथ भेदभाव कर रहा है. लगता है इसका एकमात्र हल दक्षिण भारत को अलग देश बनाना है. बात तो पकड़ ली गई पर प्रसंग भुला दिया गया. वैसे भी देश की राजनीति गुस्से में या भावावेष में कही गई बातों पर ही चल रही है. सबके सब गुस्से में हैं. गुस्से का आलम ऐसा है कि लोग जिसे पीटने के लिए दौड़ रहे हैं उससे आगे निकल जा रहे हैं. बात प्रसंग पर होती तो इसकी विवेचना होती, ठोस बहस होती, राज्य और केन्द्र के संबंधों की समीक्षा होती. अगर कुछ गलत है तो उसे ठीक करने का रास्ता निकलता. पर इसके लिए दिमाग चाहिए. खोपड़ी में भूसा भरा हो तो सास-बहू टाइप के झगड़े होते हैं. बातों को पकड़ा जाता है, बाल की खाल निकाली जाती है. चालीस दिन के झगड़े के बाद भी चार शब्द का सार नहीं निकलता. किसी एक आदमी के कहने भर से यदि राष्ट्र टूटने लगते तो देश कब का टूट चुका होता. 1905 में तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत ने बंगाल को हिन्दू और मुसलमान बहुल आबादी के आधार पर बांट दिया था. 1911 में इस फैसले को रद्द करना पड़ा. 1947 में एक बार फिर देश को तीन टुकड़ों में बांट दिया गया. तल्खी कितनी भी हो, इंसान से इंसान का रिश्ता नहीं टूटा. 1971 में पूर्वी पाकिस्तान पर संकट के बादल छाए तो भारत बड़ा भाई बनकर वहां पहुंचा और एक नए राष्ट्र बांग्लादेश का जन्म हो गया. इस इतिहास को भूलने वाले बेकार की बातों में लोगों को उलझाए रखना चाहते हैं. दरअसल, भय की एक बड़ी दुकानदारी है. स्वास्थ्य, मृत्यु, नर्क, पुनर्जन्म, यहां तक कि धर्म की दुकानें इसी पर चल रही हैं.