दुनिया का सबसे खतरनाक पहाड़ यानी एवरेस्ट. जहां आज भी लाशें भटके हुए इंसानों को रास्ता बताती हैं. ये दुनिया की इकलौती जगह है, जहां लाशों से माइलस्टोन बनते हैं.
16 से 20 हजार फीट की ऊंचाई. तापमान जमा देने वाला. ऐसे में कहीं बर्फीली तूफान आ गई तो बचने का कोई रास्ता ही नहीं बचता. ऐसे ही तूफान ने बीती 18 नवंबर को सियाचिन में तैनात हमारे चार जवानों की जान ले ली थी. मगर आज हम जो सच आपको बताने जा रहे हैं, वो सियाचिन का नहीं बल्कि दुनिया के सबसे ऊंचे, सबसे ठंडे और सबसे खतरनाक पहाड़ यानी एवरेस्ट का है. उस एवरेस्ट का जहां आज भी लाशें भटके हुए इंसानों को रास्ता बताती हैं. ये दुनिया की इकलौती जगह है जहां लाशों से माइलस्टोन बनते हैं.
क्या है डेथ ज़ोन का रहस्य?
आखिर ये जगह कौन सी है, जहां लाशों को मील का पत्थर बना दिया जाता है. और उन्हें दो गज़ ज़मीन भी मय्यसर नहीं होती. क्यों ये लाशें इंसानों के लिए माइल स्टोन बना दी जाती हैं. क्यों ये सैकड़ों सालों बाद भी खराब नहीं होती हैं. इन तमाम सवालों के जवाब दुनिया की इस सबसे ऊंची बर्फीली चोटी पर हैं. एक ऐसा बर्फीला पहाड़ जहां इंसान मरते तो हैं. मगर उनकी लाशें वहां से वापस कभी नहीं आती हैं. क्योंकि ये पहाड़ उन लाशों को वहां से वापस आने ही नहीं देता.
लाशें बन जाती हैं ‘माइलस्टोन’
ज़मीन ऐसी बंजर और दर्रे इतने ऊंचे कि यहां तक पहुंचना ज़िंदगी का मक़सद तो हो सकता है. मगर मजबूरी नहीं. क्योंकि यहां मौत ज़िंदगी पर भारी पड़ जाती है. ये एवरेस्ट है दुनिया का सबसे ऊंचा, सबसे ठंडा और सबसे खतरनाक पहाड़. हर साल इसे फतह करने का मिशन बनाकर यहां करीब तीन-साढे तीन सौ लोग आते हैं. कुछ कामयाब होते हैं और कुछ नाकामयाब होकर यहीं इसी बर्फ में समा जाते हैं. मगर ये मर कर भी मरते नहीं हैं. ये अपनी गलतियों से दूसरों को सबक देते हैं कि जिस रास्ते पर उन्हें मौत मिली. उस पर जाना मना है. और कभी कभी उनकी लाशें यहां आने वाले पर्वतारोहियों के लिए गूगल मैप का भी काम करती हैं.
लाशें बताती हैं रास्ता
एवरेस्ट के पर्वत पर इस वक्त 308 से ज्यादा माइल स्टोन यानी लाशें गड़ी हुई हैं. जिन्हें देखकर यहां आने वाले पर्वतारोही अपनी मंज़िल तय करते हैं. ये लोग कौन हैं इनका खुलासा करेंगे. मगर उससे पहले ये जानना ज़रूरी है कि एवरेस्ट पर इंसान से मील का पत्थर बन चुके ये लोग आखिर मरे कैसे. एक आंकड़े के मुताबिक सबसे ज़्यादा मौत यहां पैर फिसल कर गिरने की वजह से हुईं. और उसके बाद ठंड की वजह से दिमाग सुन्न हो जाने पर लोगों की सांसे थम गईं.
98 सालों से ‘माइलस्टोन’ बनी लाशें
सरकारों ने अब तक इन लाशों को उनके अपनों तक पहुंचाने की कोशिश भी नहीं की. क्योंकि यहां इस बर्फीली चोटी से लाशों को नीचे ज़मीन पर लाना ना सिर्फ नामुमकिन सा है. बल्कि अंदाज़े से ज़्यादा खर्चीला भी है. लिहाज़ा एवरेस्ट की इंतेज़ामिया कमेटी इन लाशों को यहीं छोड़ देती है. एक अनुमान के मुताबिक अगर एवरेस्ट पर पड़ी 308 लाशों में से किसी एक लाश को भी उतारा जाए. तो ना सिर्फ 30 लाख रुपयों का खर्च आएगा बल्कि उसे उतारने के लिए जो लोग इन बर्फीली चोटियों पर चढ़ेंगे उनकी जान जाने का भी खतरा होगा.
बर्फीली पहाड़ी से उतरते वक्त हुई मौत
माइनस 16 से माइनस 40 डिग्री का ये वो तापमान है, जहां हम और आप जाने का तसव्वुर भी नहीं कर सकते. वहां ये पर्वतारोही इन खड़ी पहाड़ियों पर चढ़ने की ज़िद करते हैं. जो तकरीबन खुदकुशी करने के बराबर है. कुछ एक हद तक जाकर लौट आते हैं. तो कुछ आगे जाने की ज़िद में अपनी जान जोखिम में डाल देते हैं. और ये 308 लाशें उन्हीं लोगों की हैं. जिन्होंने कुदरत के कहर से लड़ने की ज़िद की. मरने वालों में कई तो ऐसे हैं जिन्होंने एवरेस्ट की चोटी को फतह तो कर लिया. मगर उनकी मौत इस बर्फीली पहाड़ी से उतरते वक्त हुई.
ग्रीन बूट के नाम से जानी जाती है लाशें
एवरेस्ट की इस पहाड़ी पर दो तरफ से चढ़ाई की जाती है. और इन दोनों तरफ अलग अलग दूरी पर पर्वतारोहियों की लाशें सालों से पड़ी हैं. इन लाशों के कोई नाम नहीं है. बस इनके कपड़ों और जूते रास्ता बताने वाले पहचान चिन्ह बन गए हैं. ये लाश ग्रीन बूट के नाम से जानी जाती है. जो एवरेस्ट के उत्तर-पूर्वी रास्ते पर है. जो भारतीय पर्वतारोही शेवांग पलजोर की है. जो साल 1996 में एवरेस्ट पर चढ़ाई करते हुए बर्फीले तूफान में फंस कर मारे गए थे. आज तक शेवांग की लाश वहीं पड़ी है और ग्रीन बूट के नाम से जानी जाती है. शेवांग की तरह कई और लाशें भी इन्हीं रास्तों पर हैं. जिन्हें नाम से नहीं बल्कि उनके कपड़ों या जूतों से पहचाना जाता है.