-दीपक रंजन दास
‘प्यार में कभी-कभी ऐसा हो जाता है, छोटी सी बात का बहाना बन जाता है.’ 1976 में आई फिल्म “चलते-चलते” के इस गीत को लिखा था अमित खन्ना ने और इसे स्वरबद्ध किया था शैलेन्द्र सिंग और लता मंगेशकर जी ने. बप्पी लहरी के संगीत से सजा यह गीत उस दौर में काफी लोकप्रिय हुआ था. प्यार में छोटी-छोटी बातों का बहाना बन जाना एक सामान्य सी घटना होती है. आम तौर पर ये घटनाएं पुलकित करती हैं, जीवन में नई उमंग, नया जोश भरती हैं. पर जब प्यार में ईर्ष्या और एकाधिकार जैसी भावनाएं घुस जाती हैं तो यही प्यार पीड़ादायक हो जाता है. प्रेम संबंधों में ज्यामिती का प्रवेश हो जाता है तो वह त्रिकोणीय और चतुष्कोणीय हो जाता है. प्रेमी इसे बर्दाश्त नहीं कर पाता कि जिससे वह प्यार करता है, उसे कोई और भी चाहता है. प्यार तो सिर्फ एक भावना है. कोई मनुष्य प्यारा होगा तो उसे हर कोई पसंद करेगा. जांजगीर-चांपा में स्कूली बच्चों के बीच त्रिकोणीय प्रेम का मामला सामना आया है. इसमें एकतरफा प्यार करने वाले एक किशोर की हत्या कर दी गई. उसका दोस्त भी मारा गया. मृतक आठवीं में पढ़ता था जबकि उसका दोस्त 11वीं का विद्यार्थी था. मारने वाले भी 9वीं और 10वीं के विद्यार्थी हैं. जिस लड़की के लिए इस जघन्य घटना को अंजाम दिया गया वह 10वीं की छात्रा है. यह घटना एक छोटा सा उदाहरण है उन घटनाओं का, जो आए दिन हमारे आसपास घटित हो रही हैं. प्रेम के इस देश में अब केवल हिंसा की बातें होती हैं. हिंसा की कोई दिशा नहीं होती. जब व्यक्ति हिंसक हो जाता है तो वह अपने आस-पास के अन्य लोगों को नुकसान पहुंचाने के साथ ही, स्वयं अपने आप को भी क्षत-विक्षत कर लेता है. हिंसा की इस एक घटना ने दो किशोरों की जान ले ली, दो अपराधी बन गये. जिसे लेकर यह बवाल हो गया, वह भी बदनाम हो गई. इन सभी के परिवार वाले भी इस दुःखद घटना में शामिल हो गए. सहजता और स्वीकार्यता दो ऐसी भावनाएं हैं जो मनुष्य को मनुष्य बनाती हैं. इन भावनाओं का लोप हो गया तो स्वयं मनुष्यता शर्मसार हो जाती है. प्रेम में यदि समर्पण और त्याग की भावना नहीं है तो वह प्रेम ही नहीं है. ईर्ष्या और एकाधिकार जैसी भावनाएं प्रेम को नारकीय पीड़ा में बदल देती हैं. आज हम देख रहे हैं कि लोग अपने धर्म से उतना प्यार नहीं करते जितना किसी दूसरे के धर्म से नफरत करते हैं. नफरत का यही भाव, हिंसा को जन्म देता है. हम भूल जाते हैं कि हिंसा एक प्रवृत्ति है. इसे किसी भी दरवाजे से अपने मन में प्रवेश करने दे दिया तो यह अपनों को ही ज्यादा झुलसाता है. हिंसा का उद्देश्य व्यापक हो तो उसे सामाजिक स्वीकृति भी मिल जाती है. जीवनपद्धति हिंसक हो जाए तो विकास का कोई मतलब नहीं रहता.