-दीपक रंजन दास
अकसर कहा जाता है कि काजल की कोठरी में जाओगे तो कालिख तो लगेगी ही. यही बात कोयले के बारे में भी कही जाती है. कहा जाता है कि काले कोयला के काले धंधे में नाम आ गया तो जिन्दगी भी काली हो जाती है. छत्तीसगढ़ के बहुत सारे माननीय इन दिनों जेलों में बंद हैं. फिलहाल उनका वक्त पूजा-पाठ, ध्यान-योग, किताबें पढ़ने में गुजर रहा है. दरअसल, उन्हें किसी ने बताया ही नहीं कि जिन्दगी जीने के लिए केवल पैसों का होना जरूरी नहीं है, मकसद भी होना चाहिए. 1960 और 70 के दशक में स्कूल, कालेज में दाखिले के समय पूछा जाता था कि आपकी हॉबी क्या है. हॉबी से तात्पर्य उस शौक से है जो आपको बेहतर इंसान बनाता है. किसी की रुचि साहित्य में होती तो कोई बागवानी का शौक बताता. वहीं अधिकांश लोग चित्रकारी, खेलकूद और कविता लेखन को अपना शौक बताते. पिछले कुछ समय में शौक लगभग फिक्स हो चुके हैं. पैसा होगा तो ब्रांडेड खरीदेंगे, विदेश घूमेंगे और छककर दारू पिएंगे. बड़े-बड़े क्लब की मेम्बरशिप होगी और बड़े-बड़े होटलों में ठहरेंगे. जब मकसद केवल पैसा कमाकर बड़ा आदमी बनना हो और इच्छा दुनिया को खरीदने की हो तो मनुष्यता का पतन हो ही जाता है. ऐसे में काम आते हैं जेल जो उन्हें वापस धरती पर लाकर पटक देते हैं. यहां पैसा काम नहीं आता. अपराध की सजा डराती है तो भगवान याद आता है, साहित्य पनाह देती है. अफसरी झड़ जाती है और मनुष्यता लौट आती है. पर इंसानियत पर कालिख सिर्फ आपराधिक कारणों से नहीं चढ़ती. कुछ लोगों की कुल जमा औकात ही इतनी छोटी होती है कि उनका शेष जीवन बीती उपलब्धियों का साया मात्र बनकर रह जाता है. पूर्व जीएम, पूर्व सीजीएम, पूर्व डीजीएम रहे ये लोग इसी के साये में जीवन व्यतीत करना चाहते हैं. पूर्व विधायक, पूर्व सांसद या पूर्व पार्षद के पास तो फिर मौका होता है कि वो एक बार फिर चुनाव जीत जाएं पर खोई हुई अफसरी के दोबारा मिलने की संभावना न के बराबर होती है. खासकर तब, जबकि व्यक्ति पद से सेवानिवृत्त हुआ हो. ऐसे लोग जब भी किसी से मिलते हैं, अपना ओहदा ही बताते हैं. गलती यह कि वो सामने वाले से भी उसका ओहदा ही पूछते हैं. ऐसे में याद आती फिल्म “थ्री ईडियट्स” की. चतुर रामलिंगम उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करता है जो डिग्री और सर्टिफिकेट की बदौलत एक बड़े ओहदे तक पहुंच जाता है. उसे अपनी औकात तब समझ में आती है जब उसका पाला फुंगसुक वांगड़ू से पड़ता है. जब आप किसी से मिलते हैं तो कोई तो वजह होती ही है. क्या यह बेहतर नहीं होगा कि उसी वजह को प्रधानता दी जाए? सुनसान सड़क पर गाड़ी बिगड़ जाए तो धक्का देने वाला चरवाहा भी भगवान होता है. जब प्यास से प्राण निकल रहे हों तो पानी देने वाले की जात नहीं पूछी जाती.
Gustakhi Maaf: कालिख सिर्फ कोयले की नहीं होती
