भिलाई। पहले चरण में 30 प्रत्याशियों की घोषणा करने वाली कांग्रेस ने अपने 8 विधायकों के टिकट काटे हैं। लेकिन खबर सिर्फ इतनी ही नहीं है। उच्चस्तरीय सूत्रों के जरिए जो जानकारियां सामने आ रही है, वह और भी ज्यादा चौंकाने वाली है। दरअसल, कांग्रेस इस बार अपने 20 से 25 विधायकों के टिकट काटने जा रही है। अविभाजित मध्यप्रदेश से लेकर अब तक के कांग्रेस के इतिहास में यह पहली बार होने जा रहा है, क्योंकि आमतौर पर यह पार्टी अपने विधायकों के टिकट नहीं काटती है। पार्टी के लोगों को दूसरी सूची का इंतजार है। यह सूची 18 से 20 अक्टूबर के बीच कभी भी आ सकती है। 17 अक्टूबर को सीईसी की बैठक में दूसरी सूची फायनल हो जाने की बातें कही गई है।
करीब 6 महीने पहले मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इशारा किया था कि प्रदेश में बहुत सारे विधायकों का परफारमेंस खराब पाया गया है। ऐसे विधायकों को अपना परफारमेंस सुधारने की नसीहत भी उन्होंने दी थी। लेकिन विधायकों ने इससे सबक नहीं लिया। इसके बाद दोबारा सीएम भूपेश ने चेताया था कि यदि विधायक नहीं सुधरे तो उनके टिकट काटे जा सकते हैं। अब पार्टी ऐसे विधायकों के खिलाफ कड़े फैसले लेने जा रही है। पहले चरण में 8 विधायकों को टाटा-टाटा, बॉय-बॉय कर दिया गया है। बताते हैं कि दूसरी सूची में ऐसे विधायकों की संख्या और ज्यादा होगी। पार्टी के जानकारों का कहना है कि संभवत: दूसरी सूची ही अंतिम भी हो, लेकिन यह तय नहीं है। हो सकता है कि कुछेक सीटों पर नाम रोक लिए जाएं। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष दीपक बैज ने कल बताया कि सीईसी की बैठक दिल्ली में 17 अक्टूबर को होने जा रही है। इसके बाद 18 से 20 अक्टूबर के बीच दूसरी जारी कर दी जाएगी। वहीं प्रदेश के गृहमंत्री और कांग्रेस के कद्दावर नेता ताम्रध्वज साहू ने भी साफ तौर पर कहा कि अभी और भी कई विधायकों के टिकट कटेंगे। स्थितियां-परिस्थितियां इशारा कर रही है कि कांग्रेस कड़े और बड़े फैसले लेने के लिए पूरी तरह है। हालांकि पार्टी के लिए इतने सारे विधायकों के टिकट काटने आसान नहीं होगा।
नाराजगी फैलने का जोखिम
बड़ी संख्या में विधायकों के टिकट काटना कांग्रेस के लिए जोखिम भरा कदम भी हो सकता है। क्योंकि इससे क्षेत्र में नाराजगी फैलने का खतरा है। जिन विधायकों के टिकट काटे जाएंगे, वे समर्पण और निष्ठा के साथ काम कर पाएंगे, ऐसा भी संभव नहीं है। इसके अलावा जिन विधायकों के टिकट काटे जाएंगे, उनके विधायक भी खुलकर पार्टी और प्रत्याशी के लिए काम करने से बचेंगे। ऐसे में नए चेहरों पर दांव लगाने से भीतरघात और खुलाघात का खतरा बरकरार रहेगा। इसका असर सीधे नतीजों पर भी दिख सकता है। कांग्रेस ने कई स्तरों पर सर्वे करवाया था। वहीं शीर्ष संगठन ने भी अपने स्तर पर सर्वे करवाया। इन सबकी रिपोर्ट को सामने रखकर ही टिकट वितरण किया गया है और आगे भी किया जाएगा। सूत्रों के मुताबिक, सीएम की चेतावनी के बाद कई विधायकों ने क्षेत्र में अपनी सक्रियता बढ़ाई और विकास के काम भी करवाए, लेकिन ज्यादातर विधायक सत्ता-सुख भोगने में ही मशगूल रहे। टिकट वितरण की प्रक्रिया से कुछ पहले जो अंतिम सर्वे की रिपोर्ट आई थी, उसमें भी कई विधायकों की स्थिति खराब पाई गई थी और स्पष्ट कहा गया गया कि यदि इन विधायकों को टिकट दी जाती है तो पार्टी के लिए मुश्किल हो सकती है।

पार्टी-हित में जो बेहतर हो, सब मंजूर
पहली सूची जारी करने के पहले आलाकमान के साथ मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की कई दौर की बैठकें हुई। इस दौरान सर्वे की रिपोर्ट को सामने रखकर सीएम भूपेश से सला-मशविरा किया गया था। दरअसल, 2018 के चुनाव में भूपेश बघेल और उनकी टीम द्वारा तैयार सूची के ही आधार पर हाईकमान ने टिकट बांटी थी। जाहिर है कि जिन विधायकों का परफारमेंस कमजोर पाया गया, वे ज्यादातर सीएम भूपेश के ही करीबी हैं। ऐसे में आलाकमान ने खुले तौर पर चर्चा की थी। सीएम भूपेश बघेल ने हाईकमान के समक्ष कहा कि पार्टी हित में जो भी निर्णय लिया जाएगा, उन्हें स्वीकार है। हालांकि यह भी बताया जा रहा है कि भूपेश बघेल अपने कई खास समर्थकों को टिकट दिलवाने में सफल रहे हैं। इन नामों का खुलासा अगली सूची में हो सकता है। इस बार के टिकट वितरण में भाजपा ने एससी-एसटी से लेकर पिछड़ा वर्ग तक का भरपूर ख्याल रखा है। यह बड़ा दाँव है। कांग्रेस की सूची पर यदि पुनर्विचार की नौबत आई है तो इसकी सबसे बड़ी वजह भी यही है। बताते हैं कि कई सीटों पर कांग्रेस को भी नए सिरे से सोचना पड़ा है। सीईसी की अगली बैठक में जातीय व सामाजिक समीकरणों पर और ज्यादा मंथन होने की संभावना है।
दोनों ही दलों में दिखे बगावती तेवर
भले ही कांग्रेस ने अभी सिर्फ 30 सीटों पर प्रत्याशी उतारे हैं, लेकिन जिन विधायकों के टिकट काटे गए हैं, वहां बगावत की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। कमोबेश ऐसी ही स्थिति भाजपा में भी है। टिकट के दावेदार रहे कई नेताओं ने निर्दलीय चुनाव लडऩे ताल ठोंक दी है। हालांकि प्रत्येक चुनाव में इस तरह की स्थितियां निर्मित होती है और नाराज लोगों को मना भी लिया जाता है। छत्तीसगढ़ में निर्दलीय को चुनाव जितवाने की परंपरा को मतदाताओं ने कभी महत्व नहीं दिया है। इसलिए पार्टी नेताओं की बात न मानने के बाद भी चुनाव लडऩे पर आमादा नेताओं को ज्यादातर पराजय का ही मुंह देखना पड़ा है। फिर चाहे अपनी ही पार्टी के वोट काटकर वे जीत-हार को तय करने में निर्णायक भूमिका निभा जाते हैं। सरकार बनाने को लेकर जो कुछेक सर्वे सामने आए हैं, उसमें दोनों दलों के बीच ज्यादा वोटों का अंतर नहीं बताया गया है। ऐसे में बगावती नेताओं की मौजूदगी से सत्ता का गणित गड़बड़ा सकता है।