-दीपक रंजन दास
बालोद जिले के एक गांव में स्कूली बच्चों ने सफाई में हाथ क्या बंटाया, बवाल मच गया। किसी ने इसका वीडियो बना लिया और सोशल मीडिया पर वायरल कर दिया। बताते हैं कि पालकों में इस घटना को लेकर असंतोष है। उनकी मांग पर जिला शिक्षा अधिकारी ने घटना की जांच का आश्वासन दिया है। घटना जिले के गुरूर विकासखंड के ग्राम चिटौद स्थित प्रायमरी स्कूल की है। दरअसल, आजादी के 75 साल बाद भी लोग सामंती मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाए हैं। उन्हें सफाई का कार्य आज भी क्लास फोर स्टाफ का लगता है। यही कारण है कि देश कूड़े के ढेर पर बैठा दिखाई देता है। सरकार के बार-बार कहने के बाद भी स्थिति ज्यादा नहीं बदली जा सकी है। कोई तीन-चार दशक पहले अर्जुन्दा का एक हाईस्कूल अपनी स्वच्छता के लिए पुरस्कृत हुआ था। इस स्कूल की स्वच्छता की जिम्मेदारी विद्यार्थियों और शिक्षकों ने स्वयं उठा रखी थी। वे स्कूल परिसर से एक-एक तिनका उठाते, सूखे पत्ते बीनते और झाड़-झंखाड़ों को काटकर उसे डस्टबिन में डालते। इस कचरे को वे बाहर ऐसी जगह पहुंचा देते जहां से स्थानीय सरकार उसे उठवा लेती। 70-80 के दशक में भिलाई इस्पात संयंत्र के स्कूलों में भी बच्चे शाला परिसर को स्वच्छ बनाए रखने में अपना योगदान देते थे। इसमें अंग्रेजी माध्यम के स्कूल अग्रणी भूमिका निभाते थे। अपने आवास, स्कूल और दफ्तर की स्वच्छता से लोगों को जोडऩा गलत कैसे है? जब देश में स्वच्छता अभियान चला तो प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री से लेकर विधायकों एवं पार्षदों ने भी झाड़ू उठा लिया। हालाकि, नेताओं का यह झाड़ू उठाना प्रतीकात्मक था पर तत्कालीन भिलाई शहर विधायक प्रेमप्रकाश पाण्डेय को लोगों ने इस अभियान में पूरी गंभीरता के साथ शामिल होते देखा था। वे नालियों में उतर जाते, रांपा लेकर झाडिय़ां काटते और लोगों को भी अपने घर के आसपास की सफाई के लिए प्रेरित करते। स्वच्छता अभियान का उपयोग राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी राष्ट्र को जोडऩे के लिए किया था। वे स्वयं नालियों से लेकर संडास तक की सफाई करते और लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करते। आशय स्पष्ट है कि हजार लोग मिलकर गंदगी मचाएंगे तो चार-पांच लोग सफाई नहीं कर पाएंगे। स्वच्छता आदत होनी चाहिए। आज के बच्चे ही कल के नागरिक हैं। उनमें अच्छी आदतों को विकसित करना भी उतना ही जरूरी है, जितना कि गणित और विज्ञान पढ़ाना। वरना बच्चा एमएससी करने के बाद भी अंधविश्वासों में ही जकड़ा रहता है, उसमें वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं हो पाती। बच्चे अगर स्कूल परिसर की सफार्ई के लिए श्रमदान कर रहे हैं तो उनकी तस्वीरें जरूर छपनी चाहिए पर खबर यह होनी चाहिए कि इन बच्चों से समाज भी प्रेरणा ले। बच्चों को इस कार्य के लिए प्रेरित करने वाले शिक्षकों का भी सम्मान होना चाहिए कि वे बच्चों को अच्छी आदतें सिखा रहे हैं। नजर नहीं नजरिया बदलने की जरूरत है।
Gustakhi Maaf: प्रधानमंत्री झाड़ू उठा सकते हैं तो बच्चे क्यों नहीं
